कहानी ९१: सुरुफ़िनीकी जाती कि स्त्री का विश्वास

story 101.jpg

फिर यीशु ने वह स्थान छोड़ दिया और सूर के आस-पास के प्रदेश को चल पड़ा। सूर भूमध्य सागर के किनारे बसा एक बड़ा शहर था। यह एक अन्यजातियों का शहर था। वह यहूदी दुश्मनो से अपने आप को दूर रख रहा था। वहाँ वह एक घर में गया। वह नहीं चाहता था कि किसी को भी उसके आने का पता चले।

एक कनानी स्त्री जिसकी लड़की में दुष्ट आत्मा का निवास था, यीशु के बारे में सुन कर तत्काल उसके पास आई। यीशु के विषय में सुनकर उसे आशा मिली। वह यहूदी नहीं थी फिर भी वह उसकी आशीष को पाना चाहती थी। जब उसे यीशु मिल गए तो चिल्लाने लगी,“हे प्रभु, दाऊद के पुत्र, मुझ पर दया कर। मेरी पुत्री पर दुष्ट आत्मा बुरी तरह सवार है।” उसके पास कितना साहस था!

यीशु ने उससे एक शब्द भी नहीं कहा, सो उसके शिष्य उसके पास आये और विनती करने लगे, “यह हमारे पीछे चिल्लाती हुई आ रही है, इसे दूर हटा।”

यीशु ने उत्तर दिया, “मुझे केवल इस्राएल के लोगों की खोई हुई भेड़ों के अलावा किसी और के लिये नहीं भेजा गया है।”

यीशु पहले यहूदियों के लिए सुसमाचार लेकर आये थे। यीशु के उंडेलते हुए चमत्कार परमेश्वर के वाचा बंधे हुए लोगों के लिए आशीषें थीं। एक अन्यजाति होने के कारण, उसे कोई अधिकार नहीं था कि वह उसके महान अनुग्रह को मांग सके। वह परमेश्वर के परिवार का सदस्य नहीं थी!

तब उस स्त्री ने यीशु के सामने झुक कर विनती की, “हे प्रभु, मेरी रक्षा कर!”
उत्तर में यीशु ने कहा, “यह उचित नहीं है कि बच्चों का खाना लेकर उसे घर के कुत्तों के आगे डाल दिया जाये।”

यीशु उससे कह रहे थे कि उनके तोहफे यहूदी लोगों के लिए थे और ना कि उसके जैसी अन्यजाति स्त्री के लिए। वह यीशु से बोली,“यह ठीक है प्रभु, किन्तु अपने स्वामी की मेज़ से गिरे हुए चूरे में से थोड़ा बहुत तो घर के कुत्ते ही खा ही लेते हैं।” उसने यह माना कि परमेश्वर कि आशीषें उसके इस्राएल देश के द्वारा बह कर अन्यजातियों पर भी आती हैं। यह उसे रोक नहीं पाया!

तब यीशु ने कहा, “स्त्री, तेरा विश्वास बहुत बड़ा है। जो तू चाहती है, पूरा हो।” और तत्काल उसकी बेटी अच्छी हो गयी।

इस स्त्री के और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के विश्वास के व्यवहार में कितना अंतर था! क्या यह अचंबित नहीं कि परमेश्वर के लोगों को उसकी मेज़ से जीवन कि रोटी दी गयी फिर भी उन्होंने उसे अस्वीकार किया? यह अन्यजाति स्त्री उस रोटी को लेने को तैयार थी, इसके बावजूद कि उसे यहूदी लोगों के बचे हुए टुकड़े मिल रहे थे। अंत में, उन्हें यह उन्होंने वह महान खज़ाना खो दिया है।

यीशु सुर से निकल कर गलील के समुन्द्र कि ओर वापस चला गया। उसे उत्तर कि ओर पच्चीस मील दूर चलना पड़ा, और फिर हेरोदेस के भाई फिलिपुस के क्षेत्र से निकला।  यीशु गलील में नहीं जाना चाहता था। हेरोदेस राजा इस यीशु के आने को यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले कि वापसी को समझ रहा था जिसका भय उसके भीतर समाया हुआ था। भीड़ में से कुछ उसे राजा बनाना चाहते थे, और धार्मिक अगुवे उसे मरवाना चाहते थे। सो उसने अपने चेलों के साथ, उन सब सवालों और भीड़ के पागलपन से बचने के लिए पैदल लंबी यात्रा की। उन्हें आपस में बात चीत करने का मौका मिल गया। क्या आप सोच सकते हैं कि उन्होंने क्या बातें की होंगी?

फिर वह सूर के इलाके से वापस आ गया और दिकपुलिस यानी दस-नगर के रास्ते सिदोन होता हुआ झील गलील पहुँचा। यह वो स्थान जहां वो आदमी रहता था जिसके अंदर दुष्ट आत्माओं कि सेना थी। उसे उसके बंधन से आज़ाद करने के बाद, वह दिकपुलिस को जाकर वो सब बातों को  यीशु ने की थीं। उसने उनके बीच जाकर सुसमाचार सुनाया और परमेश्वर के लिए उन अविश्वासी ह्रदयों को तैयार किया।

फिर यीशु वहाँ से चल पड़ा और झील गलील के किनारे पहुँचा। वह एक पहाड़ पर चढ़ कर उपदेश देने बैठ गया। बड़ी-बड़ी भीड़ लँगड़े-लूलों, अंधों, अपाहिजों, बहरे-गूंगों और ऐसे ही दूसरे रोगियों को लेकर उसके पास आने लगी। भीड़ ने उन्हें उसके चरणों में धरती पर डाल दिया। और यीशु ने उन्हें चंगा कर दिया। यह कितना अद्भुद परमेश्वर है! ऐसे परिवर्तन को देखना कितना यशस्वी है। भीड़ ने यीशु कि सामर्थ को देखा और अचंबित हुई। जब कि वे अन्यजाति थे, उन्होंने ने उस अच्छाई को देख कर उसकी ओर प्रतिक्रिया की, और इस्राएल के परमेश्वर कि महिमा की।

वहाँ कुछ लोग यीशु के पास एक व्यक्ति को लाये जो बहरा था और ठीक से बोल भी नहीं पाता था। लोगों ने यीशु से प्रार्थना की कि वह उस पर अपना हाथ रख दे। यीशु उसे भीड़ से दूर एक तरफ़ ले गया। यीशु ने अपनी उँगलियाँ उसके कानों में डालीं और फिर उसने थूका और उस व्यक्ति की जीभ छुई।फिर स्वर्ग की ओर ऊपर देख कर गहरी साँस भरते हुए उससे कहा,“इप्फतह।”अर्थात् “खुल जा!” और उसके कान खुल गए, और उसकी जीभ की गांठ भी खुल गई, और वह साफ साफ बोलने लगा।

फिर यीशु ने उन्हें आज्ञा दी कि वे किसी को कुछ न बतायें। वह चेलों को शिक्षण देने के लिए और समय बिताना चाहता था, लेकिन लोक-प्रसिद्धि और शहरत रास्ते में आ रही थीं। लेकिन यीशु कि विनती इस मनुष्य को उसके महान उपहार के विषय जो उसे मिला था,बताने से रोक नहीं पाई। बल्कि, जितना वह उन्हें कप रहने को कहता था, वे उतना ही उसका प्रचार करते थे। उसके विषय में सूचना दूर दूर तक फ़ैल गयी। यह कितना अचंबित है कि जिन लोगों को यीशु ने इतना सिखाया, इतना प्रेमा और करुणा दिखाई, उन्होंने उसकी आज्ञाओं को नहीं माना। उनकी कृतज्ञता कहाँ गयी? वे उस व्यक्ति का आदर क्यूँ नहीं करना चाहते थे जिसने उनके लिए इतना महान कार्य किया?