कहानी १४६: धिक्कार
मत्ती २३:१३-२७, मरकुस १२:४०, लूका २०:४७
यीशु मंदिर के आंगन में खड़ा था, वह पहले से ही इस्राएल के अगुवों के विरुद्ध अपनी अभियोग बातें करने लगा था। यहाँ परमेश्वर का पुत्र था, जो पवित्र देश के अगुवों के विरुद्ध फटकार रहा था। उन्होंने किस तरह लोगों को अपने प्रभाव से दुष्प्रयोग!
यीशु ने कहा कि जहाँ अपने अगुवों के कहने पर चलना ठीक है जो बाइबिल के आधार पर सिखाते हैं, वहीं उनके तौर तरीकों को इंकार करना है। परमेश्वर के सच्चे चेलों को विनम्र होना है, जो उन अगुवों के रहन सहन से बिल्कुल विपरीत था। अब यीशु फरीसियों और शास्त्रियों के विरुद्ध में सात अभिशाप घोषित करने जा रहा था, जो उनके सब धार्मिक छल को बेनकाब करने जा रहा था। फिर भी इन अभिशाप का बल केवल आरोपों से अधिक सामर्थी था। यीशु परमेश्वर के न्याय को इन लोगों पर ऐलान कर रहा था! यह उसका पहला अभिशाप था:
“'अरे कपटी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम लोगों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बंद करते हो। न तो तुम स्वयं उसमें प्रवेश करते हो और न ही उनको जाने देते हो जो प्रवेश के लिए प्रयत्न कर रहे हैं।'"
आपको इसका अर्थ समझ में आया? ये परमेश्वर के पवित्र राष्ट्र के अगुवे थे! जब मसीह था तब इन्हें अपने राष्ट्र को पश्चाताप करवाना चाहिए था। उनके पास हज़ारों सालों का वचन था जो यीशु के ऊपर दर्शाता था, और उन्हें यह समझने में मदद करता कि यीशु ही स्वर्ग का राज्य है। ना केवल वे पश्चाताप करने में और यीशु कि आराधना करने में असफल रहे, उन्होंने दूसरों को मसीह से दूर करने कि पूरी कोशिश भी की! वे दरवाज़े पर रूकावट कि तरह खड़े रहे!
फिर उसने दूसरा अभिशाप सुनाया:
“'अरे कपटी धर्मशास्त्रियों और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम किसी को अपने पंथ में लाने के लिए धरती और समुद्र पार कर जाते हो। और जब वह तुम्हारे पंथ में आ जाता है तो तुम उसे अपने से भी दुगुना नरक का पात्र बना देते हो!'"
क्या आप मसीह के धार्मिक क्रोध को सुन सकते हैं? क्या आप उसके पवित्र क्रोध को समझ सकते हैं। यह वे लोग थे जिन्हें वो महान और कीमती वायदे दिए गए थे! केवल यही लोग थे जिन्हें सब लोगों में यह अवसर मिला था कि परमेश्वर के वचन को अपने पूरे जीवन भर सीख सकें! उन्होंने उसका उपयोग किया और अपने स्वार्थ के लिए अपने पद को अपमानित किया। वे परमेश्वर के इतने बुरे नमूने थे कि जिस किसी को भी वे शिक्षा देते थे वे भी उनके समान स्वार्थी हो जाते थे!
यीशु ने कहा:
“अरे अंधे रहनुमाओं! तुम्हें धिक्कार है जो कहते हो यदि कोई मन्दिर की सौगंध खाता है तो उसे उस शपथ को रखना आवश्यक नहीं है किन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की शपथ खाता है तो उसे उस शपथ का पालन आवश्यक है। अरे अंधे मूर्खो! बड़ा कौन है? मन्दिर का सोना या वह मन्दिर जिसने उस सोने को पवित्र बनाया।
“तुम यह भी कहते हो ‘यदि कोई वेदी की सौगंध खाता है तो कुछ नहीं,’ किन्तु यदि कोई वेदी पर रखे चढ़ावे की सौगंध खाता है तो वह अपनी सौगंध से बँधा है। अरे अंधो! कौन बड़ा है? वेदी पर रखा चढ़ावा या वह वेदी जिससे वह चढ़ावा पवित्र बनता है? इसलिये यदि कोई वेदी की शपथ लेता है तो वह वेदी के साथ वेदी पर जो रखा है, उस सब की भी शपथ लेता है। वह जो मन्दिर है, उसकी भी शपथ लेता है। वह मन्दिर के साथ जो मन्दिर के भीतर है, उसकी भी शपथ लेता है। और वह जो स्वर्ग की शपथ लेता है, वह परमेश्वर के सिंहासन के साथ जो उस सिंहासन पर विराजमान हैं उसकी भी शपथ लेता है।'"
यह तीसरा अभिशाप थोड़ा भ्रामक है। ये अभिशाप क्या थे जिससे कि यीशु इतना क्रोधित हुआ? फरीसियों और शास्त्रियों ने एक कानूनी प्रणाली वाचा के साथ बना लिया था। यदि कोई किसी वाचा के साथ वायदा देता है, तो वह कानूनी तौर पर बंध जाता है। परन्तु यदि वे शपथ में थोडा सा परिवर्तन करके के बोलते हैं तो वह बंधन नहीं है। किसी व्यक्ति को उसे पूरी तौर से मानना नहीं पड़ेगा!
उन लोगों के लिए कितना भ्रामक है जो पूरे नियमों को नहीं समझते हैं। वे धार्मिक अगुवे जो जानते थे कि क्या कहना है, वे लोगों को इस बात का विश्वास दिलाते थे कि वे ऐसे अनिवार्य वाचा बना रहे थे जिन्हें वे स्वयं भी मानने वाले नहीं थे। वे कह सकते थे,"मैं मंदिर कि कसम खाता हूँ"
इसके बजाय "मैं सोने कि कसम खाता हूँ" यह जानते हुए कि यह ज़यादा अनिवार्य है। उन्हें अपने वायदे रखने कि कोई आवश्यकता नहीं थी!
इससे लोगों में कितना अविश्वास फ़ैल गया था। उनके अपने ही अगुवे उन्हें हेरफेर करने के लिए उस शपथ को उपयोग कर रहे थे! मत्ती 5 में, यीशु ने कहा कि परमेश्वर के चेले जो उसकी उपस्थिति में रहते थे वे सच्चाई को स्पष्ट रूप से बताना चाहेंगे। जब उसने कहा,"हाँ", इसका मतलब है "हाँ"
जब वह "ना" कहता है तो वह वास्तव में "ना" कह रहा है। लोगों के बीच कैसा बंधन बांध सकता है यदि वे इस बात को समझें कि जो कुछ दूसरा व्यक्ति कह रहा है वह सच है। उनके वायदों को रखने के लिए उन पर विश्वास किया जा सकता था। धार्मिक अगुवों को यही इस्राएल के देश को सिखाना चाहिए था। वे वायदों को रख सकते थे! धार्मिक अगुवे यही इस्राएल के राष्ट्र को सिखा रहे थे। यही संस्कृति है जिस के लिए उन्हें उन सब बातों के लिए लड़ना था जो वे कर रहे थे। स्वर्ग का राज्य ऐसा ही है!
यीशु ने कहा:
“'अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों और फरीसियों! तुम्हारा जो कुछ है, तुम उसका दसवाँ भाग, यहाँ तक कि अपने पुदीने, सौंफ और जीरे तक के दसवें भाग को परमेश्वर को देते हो। फिर भी तुम व्यवस्था की महत्वपूर्ण बातों यानी न्याय, दया और विश्वास का तिरस्कार करते हो। तुम्हें उन बातों की उपेक्षा किये बिना इनका पालन करना चाहिये था। ओ अंधे रहनुमाओं! तुम अपने पानी से मच्छर तो छानते हो पर ऊँट को निगल जाते हो।'"
यीशु ने जब चौथे अभिशाप कि घोषणा की, उसने धार्मिक अगुवों को अनाज्ञाकारिता के लिए फटकारा। यह सच है कि पुराने नियम के विधि के अनुसार उन्हें परमेश्वर को दसवां हिस्सा देना है। धार्मिक अगुवे अपनी वफादारी इतनी दिखाई कि उन्होंने अपने बगीचे के उत्पादन का भी दसवां दिया। परन्तु वे ऐसे जी रहे थे मानो उनके देश में दया और न्याय कि स्थापना कुछ नहीं होता है। शासन में रहने वाले अगुवे होनेसे , यह उनका काम था कि वे उनकी रक्षा करें जो दुराचार और अपमान के आलोचनीय हैं, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। वे धार्मिक सक्रियता को ऐसे मानते थे जैसे कि वह सबसे बड़े और महत्वपूर्ण बात हो, जब कि उस परमेश्वर कि बातों को अनदेखा करते थे जो न्याय और दया से प्रेम करता है। वे आज्ञाकारी नहीं थे और अन्याय और भ्रष्टाचार का पूरी तरह साथ देते थे!
फिर यीशु ने कहा:
“'अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम अपनी कटोरियाँ और थालियाँ बाहर से तो धोकर साफ करते हो पर उनके भीतर जो तुमने छल कपट या अपने लिये रियासत में पाया है, भरा है। अरे अंधे फरीसियों! पहले अपने प्याले को भीतर से माँजो ताकि भीतर के साथ वह बाहर से भी स्वच्छ हो जाये।'"
क्या आप पांचवे अभिशाप का अनुमान लगा सकते हैं? कप और बर्तन, फरीसियों और व्यवस्था के शिक्षकों के जीवन को दर्शाता है। वे इस बात से निश्चित थे कि उनका जीवन बाहर से स्वच्छ है। लोगों के सामने वे जो कुछ भी करते थे वह पवित्र और धार्मिक दिखता था। परन्तु अपने ह्रदयों में वे लालची और स्वार्थी थे! उनके गंदे विचारों के कारण वे बहुत ही गंदे थे। यीशु ने उन्हें स्वच्छ और अपने ह्रदयों को पवित्र करने कि आज्ञा दी। यदि जो कुछ भी वे अपने पवित्र परमेश्वर के लिए भक्ति के साथ करते हैं तो उन्हें इस बात कि चिंता करने कि आवश्यकता नहीं कि वे बाहर से कैसे लगते हैं!
छटवा अभिशाप जो यीशु ने कहा वह बहुत कुछ मलिनतापूर्ण था। उसने कहा:
“'अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम लिपी-पुती समाधि के समान हो जो बाहर से तो सुंदर दिखती हैं किन्तु भीतर से मरे हुओं की हड्डियों और हर तरह की अपवित्रता से भरी होती हैं।'"
उन दिनों में, यहूदी लोग समाधी को सफेदी से साफ़ करते थे। समाधियों पर स्पष्ट रूप से निशाँ लगाते थे ताकि वहाँ से गुज़रने वाले लोग उसे छू कर अपने को भ्रष्ट ना कर दें। परमेश्वर के पवित्र व्यवस्था के अनुसार, वह उन्हें सात दिन के लिए अपवित्र कर देता है। यह परमेश्वर की एक विधि थी लोगों को बीमारियों और अप्रतिष्ठा से बचने की। चाहे ये समाधी जो सफ़ेदी करने से शुद्ध दिखती थीं वे फिर भी मरने वालों का स्थान था। लाश अंदर सड़ती थीं और केवल उनका कंकाल ही रह जाता था। इन धार्मिक अगुवों के ह्रदय ऐसे मृत्यु और सड़न से भरे हुए थे। वे शुद्ध और पवित्र दीखते थे, परन्तु वह केवल भीतर बिमारियों को छुपाने के लिए था।
क्या फरीसी और शास्त्री सुनेंगे? एक और अभिशाप बचा था। क्या वह सांतवा अभिशाप उन्हें पश्चाताप कराएगा?