कहनी १२१: एक शिष्य होने की कीमत 

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यीशु जब परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाते हुए पेरी को गए, बड़ी भीड़ उसके साथ गयी जहां जहां वो गया। यीशु के विरुद्ध धार्मिक अगुवों ने शत्रुता कि लंबी रेखा खींची,  लेकिन वह अपने देश का सबसे प्रसिद्ध शिक्षक था। आधे से ज़यादा लोग उसे मसीहा समझ रहे थे!

येरूशलेम कि ओर जब यीशु पेरी होते हुए गए, सब जानते थे कि एक बड़ा तूफ़ान उठेगा। जब फसह का समय आएगा, तब बहुत संघर्ष होगा। सारा राष्ट्र उसी कि चर्चा कर रहा था। क्या वे यीशु को गिरफ्तार करेंगे? क्या वह कोई चमत्कार करेगा और येरूशलेम पर अपनी सामर्थ का दावा करेगा? पुराने नियम नें इस्राएल के चमत्कारी विजय और दूतों की फ़ौज कि दूसरे शक्तिशाली देशों के ऊपर विजय पाने के विषय में लिखा है। क्या यीशु रोमियों के विरुद्ध में आकर अपने सिंहासन को स्थापित करेगा?

भीड़ में बहुत से लोग समझते थे कि यीशु ही मसीहा है, और वे उस आशीष को खोना नहीं चाहते थे जो उन्हें उसके कार्य करने से मिलती। वे चाहते थे कि यीशु येरूशलेम में अपने सिंहासन को अधिकारपूर्ण राजा के स्वरुप में गृहण करे। वे इस बात कि अपेक्षा करते थे कि वह आकर अपने राज्य को स्थापित करेगा जिसके विषय में वह हमेशा चर्चा किया करता था और वे स्वयं भी उसके भागीदार होना चाहते थे।

वे यह नहीं समझ पाए कि यीशु एक आत्मिक राज्य कि बात कर रहा है। वे इस बात को अभी तक पकड़ नहीं पाए थे जिस महान शत्रू कि यीशु बात कर रहा है वह शैतान और श्राप की शक्तिशाली जकड़न है। उनकी सोच से बढ़ कर यह एक गहरी विजय थी। यह स्वर्ग का द्वार उन सब के लिए खोला जाएगा जो यीशु पर विश्वास करते हैं। भीड़ और यीशु के चेले  इस बात को नहीं समझ पाये कि इस पृथ्वी पर यीशु के राज्य के लिए जीना उन चेलों के विजय जो उन्हें मिलने वाली थी उसके समान नहीं था। वह क्रूस के समान दिखने वाला था। बहुत बार परमेश्वर के राज्य कि आशीषों को लोग श्राप समझ बैठते हैं। परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार को जब वे दूर दूर देशों में फैला रहे थे, उन्हें भी वही विरोध का सामना करना पड़ेगा जो यीशु ने सहा। यीशु के पीछे चलने कई बार संकट और क्लेश का सामना करना पड़ता है। यीशु कि तरह, चेलों के लिए सच्ची आशा वो है जिस दुनिया को वे अभी देख नहीं सकते। एक दिन, सभी विश्वासी यीशु के साथ उस उत्तम जगह में अपने उत्तम उद्धारकर्ता के साथ होंगे। यीशु के लिए इस संसार में हर पल क्लेश को सहना उस लायक होगा, लेकिन यह आसान नहीं होगा।

यीशु उस के पीछे चलने कि कीमत को चेलों को और भीड़ को स्पष्ट रूप से बताना चाहता था। उसने कहा:

“'यदि मेरे पास कोई भी आता है और अपने पिता, माता, पत्नी और बच्चों अपने भाइयों और बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन तक से मुझ से अधिक प्रेम रखता है, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता! जो अपना क्रूस उठाये बिना मेरे पीछे चलता है, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।'"

क्या आप यह सोचते हैं कि यीशु चाहता था कि उसके चेले अपने परिवार से नफरत करे? यह वही यीशु है जिसने सबको अपने पड़ोसी से प्रेम करने को कहा था! जब कभी यहूदी लोग "घृणा" शब्द का उपयोग करते थे जैसे कि यीशु करता था, वे समझते थे कि और वस्तुएँ जिनका मूल्य अधिक था उनसे कम प्रेम करना। उदहारण के लिए, आइस्क्रीम पसन्द करना ठीक है, लेकिन उसे अपने माँ बाप से अधिक चाहना ठीक नहीं होगा। माँ बाप से प्रेम करने कि तुलना में उस आइसक्रीम से प्रेम इतना कम होना चाहिए कि उससे घृणा भी की जा सके। वास्तव में, अगर आपको कभी माँ बाप और आइसक्रीम के बीच निर्णय लेना पड़े, तो माँ बाप से प्रेम करने के लिए उस आइसक्रीम से "घृणा" या अस्वीकार करना होगा। वे अधिक महवपूर्ण हैं।

जितना कि चेलों को अपने परिवार से प्रेम करना चाहिए था, उनका यीशु के प्रति प्रेम और आज्ञाकारिता भरी भक्ति ने पहला स्थान ले लिया था। और यदि कभी भी परिवार कि ख़ुशी और यीशु के प्रति आदर दोनों के बीच निर्णय लेना पड़े, तो यीशु के प्रति आज्ञाकारिता सबसे महत्वपूर्ण होना चाहिए। यीशु उन सब से पहले वफ़ादारी को चाहता जो उस के पीछे चलेंगे। इसका मतलब है कि म्रत्यु दम तक उसके आज्ञाकारी बने रहना। यह कुछ ज़यादा हो गया। यह एक उग्र प्रेम है। फिर यीशु ने कहा:

“'यदि तुममें से कोई बुर्ज बनाना चाहे तो क्या वह पहले बैठ कर उसके मूल्य का, यह देखने के लिये कि उसे पूरा करने के लिये उसके पास काफ़ी कुछ है या नहीं, हिसाब-किताब नहीं लगायेगा? नहीं तो वह नींव तो डाल देगा और उसे पूरा न कर पाने से, जिन्होंने उसे शुरू करते देखा, सब उसकी हँसी उड़ायेंगे और कहेंगे,‘अरे देखो इस व्यक्ति ने बनाना प्रारम्भ तो किया, ‘पर यह उसे पूरा नहीं कर सका।’

“या कोई राजा ऐसा होगा जो किसी दूसरे राजा के विरोध में युद्ध छेड़ने जाये और पहले बैठ कर यह विचार न करे कि अपने दस हज़ार सैनिकों के साथ क्या वह बीस हज़ार सैनिकों वाले अपने विरोधी का सामना कर भी सकेगा या नहीं। और यदि वह समर्थ नहीं होगा तो उसका विरोधी अभी मार्ग में ही होगा तभी वह अपना प्रतिनिधि मंडल भेज कर शांति-संधि का प्रस्ताव करेगा।

“तो फिर इसी प्रकार तुममें से कोई भी जो अपनी सभी सम्पत्तियों का त्याग नहीं कर देता, मेरा शिष्य नहीं हो सकता।'"   --लूका १४:२८-३३

यीशु हर एक चेले को बैठा कर उन्हें यह सोचने कि चुनौती दे रहा था कि "क्या मैं यीशु के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ? क्या यदि उसने मेरे घर को मांग लिया? मेरा विवाहित जीवन? मेरी नौकरी? क्या यदि मुझे उसके नाम के वास्ते दुःख सहना पड़े? क्या यदि कोई यह ना समझ पाये कि जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ वो मैं नहीं परन्तु यीशु कर रहा है? अगर मैं मर गया तो? क्या यह इस लायक है? क्या मैं उसके पीछे अंत तक चल पाऊंगा? क्या मैं उसे सब कुछ दे पाऊंगा?" इन सवालों कि सबसे डराने वाली बात यह है कि यह सही उत्तर मांगते हैं। और जितने भी हद से अधिक हों, वे उस बातों के सामने कुछ भी नहीं थे जो हमारे अगुवे ने स्वयं परमेश्वर को ना दिया हो। यीशु का जीवन उसके देश के लोगों के उंडेला जा रहा था जब कि वे उसे अस्वीकार कर रहे थे।  और उसका लहू इस संसार के उद्धार के लिए बहाया जाएगा। वे जो उस पर विश्वास करते थे और उसके पीछे चलते थे वह उनके लिए एक नमूना था। उसने अपने ही शरीर से द्वार को बनाया और उसमें प्रवेश करने का रास्ता बनाया। जो उसकी पहचान में बने रहना चाहते हैं उन्हें परमेश्वर को पूर्ण रूप से समर्पण करना होगा। उनका परमेश्वर के प्रति समर्पण और इस दुनिया कि चीज़ों के लिए बेपरवाही, इस बात कि गवाही देता है कि वे किसी आती उत्तम चीज़ कि इंतेजारी कर रहे हैं। यीशु येरूशलेम कि ओर अपने मार्ग को बना रहा था, और वह हर एक व्यक्ति अपने ह्रदय को जांचने के लिए तैयार कर रहा था। क्या उन्होंने उसकी कीमत को गिना? बहुतों को उसका उत्तर तब मिलेगा जब यीशु पकड़वाया जाएगा। यहाँ तक की वे जिनके अपने लिए ऊंचे इरादे थे, मौत के सामने लड़खड़ाने और असफल हो जाएंगे। सब कुछ कहने सुनने के बाद क्या कोई बचेगा?