कहानी ४६: पर्वत पर सन्देश : धन्यजन
यीशु ने पर्वत पर सन्देश दिया अपने लोगों को यह सीखने के लिए कि उनको परमेश्वर के राज्य के लिए कैसे जीना चाहिए। इस पाप से भरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर कि सेवा करना आसान नहीं है! एक दिन, जो उस पर विश्वास करते हैं आसमान पर उठा लिए जाएंगे, जहाँ हम पाप के द्वारा फिर कभी लुभाय नहीं जाएंगे। परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होने के लिए हम पूर्ण और स्वतंत्र किये जाएंगे। जब हम उस सुन्दर दिन कि प्रतीक्षा करते हैं, यीशु चाहता है कि उसके लोग परमेश्वर के बल में सिद्ध होने के लिए प्रयास करें। इस सन्देश कि गहराई में वो कहता है, "'पवित्र बनो.... जैसा कि हमारा स्वर्गीय पिता पवित्र है।'" जैसे हम और पढ़ेंगे, हम जानेंगे कि प्रभु यीशु में वह पवित्रता क्या है।
सन्देश के शुरुआत में, यीशु उन लोगों के विषय में सिखाता है जो स्वर्ग में प्रवेश करेंगे। आप को क्या लगता है वे कौन लोग होंगे? क्या वे इस पृथ्वी के घमंडी और निपुण शासक होंगे? क्या वे अमीर या बेहद प्रतिभाशाली लोग होंगे? क्या परमेश्वर उनको चाहता है जिनको परिश्रम से सब कुछ मिल जाता है? क्या वे सुन्दर दिखने वाले लोग होने जिनकी सुंदरता सब जगह चमकती है जहाँ भी वे जाते हैं? क्या वे लोग होंगे जो सब बात में निपुण हैं? इन बातों को तो हम महत्व देते हैं, है कि नहीं? इनमें से कुछ तो बहुत अच्छी होंगी। परन्तु इस गिरे हुए, श्रापित दुनिया में, सब कुछ बिखरा हुआ, यहाँ तक कि हमें कैसा जीना है यह विचार भी। पर्वत पर सन्देश में, यीशु ने खूबसूरत तस्वीर दिखाई कि कैसे एक ह्रदय परमेश्वर के लिए सिद्ध किया जा सकता है।
ये कितने गहरे और जबरदस्त विचार हैं! उस दिन जिस दिन यीशु ने यह सन्देश दिया वह कैसा रहा होगा! उसने गलील के सागर से दिखता हुआ एक पहाड़ी के ढलान के साथ एक स्थान को चुना। यह भीड़ को अपनी आवाज़ पहुंचने के लिए एक अच्छा आदर्श थिएटर था। यीशु के चरणों पर बैठ कर, उसके अपने चेले बारीकी से सुनते थे। ये उनका विशेष प्रशिक्षण था। उसके स्वर्ग में विराजमान होने के बाद, वे स्वर्ग के राज्य के सन्देश को सब के पास पहुचाएंगे। एक ख़ूबसूरत झील कि कल्पना कीजिये जो सूरज कि किरणों से चमक रही है। चिड़ियों के चहकने कि कल्पना कीजिये जो शीतल हवा और भीड़ कि कोमल आवाज़ें जब वे बड़बड़ाते और सुनते होंगे। यीशु के सामर्थ भरे सन्देश कि कल्पना कीजिये जो शुद्ध, पूर्ण, एक पापी, अँधेरे से घिरा हुआ, भ्रमित और क्लेश से भरी दुनिया के लिए है। उस ने कहा :
“धन्य हैं वे जो हृदय से दीन हैं,
स्वर्ग का राज्य उनके लिए है।
धन्य हैं वे जो शोक करते हैं,
क्योंकि परमेश्वर उन्हें सांतवन देता है
धन्य हैं वे जो नम्र हैं
क्योंकि यह पृथ्वी उन्हीं की है।
धन्य हैं वे जो नीति के प्रति भूखे और प्यासे रहते हैं!
क्योंकि परमेश्वर उन्हें संतोष देगा, तृप्ति देगा।
धन्य हैं वे जो दयालु हैं
क्योंकि उन पर दया गगन से बरसेगी।
धन्य हैं वे जो हृदय के शुद्ध हैं
क्योंकि वे परमेश्वर के दर्शन करेंगे।
धन्य हैं वे जो शान्ति के काम करते हैं।
क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
धन्य हैं वे जो नीति के हित में यातनाएँ भोगते हैं।
स्वर्ग का राज्य उनके लिये ही है।
मत्ती ५ः३-१०
क्या ये ख़ूबसूरत वचन नहीं हैं? उनको दुबारा पढ़िए। "धन्य" से यीशु के क्या मतलब था? बाइबिल में, विश्वासी परमेश्वर द्वारा धन्य किये गए हैं, और वे भी परमेश्वर को धन्य कह सकते हैं। जब परमेश्वर हमें आशीष देता है, इसका मतलब वो हमसे सहमत है। वह खुश है। और जब हम परमेश्वर को धन्य कहते हैं, इसका मतलब हम उसकी स्तुति कर रहे हैं। सबसे योग्य परमेश्वर कि आराधना करने के अलावा और कोई ऐसा कार्य इससे महान नहीं है जो हम उसकी प्रशंसा के लिए कर सकते हैं। परमेश्वर कि आशीषों के अलावा और कोई ऐसा तोहफा नहीं जो हम पा सकें।
हमें पूरे ह्रदय से पूरी कोशिश करनी चाहिए वैसा इंसान बन्ने कि जिसे वह आशीष देना चाहता है। आत्मा में नम्रा होने का क्या अर्थ है? विलाप करना, नम्र होना, धर्म के लिए भूखे और प्यासे होने का क्या अर्थ है? यीशु हमें कैसे चाहता है कि दया दिखाएं, हिरदय से शुद्ध बनें, और शांति करने वाला बनें? और इसका क्या अर्थ है कि हम वो उल्लेखनीय इनाम पाएं जो हर एक ये गुण हमारे लिए लाते हैं?