कहानी १४८: विधवा का छोटा सिक्का : एक कहानी
उसके पास काफी नहीं था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसने कुछ ऐसा सबक सीखा जिससे उसे साधारण परन्तु शानदार स्वतंत्रता मिली। उसके जीवन में काफी कड़ा समय आया। चाहे वह अपने पति से बहुत प्रेम करती थी, परमेश्वर ने उसे बहुत जल्द उठा लिया था और वह लम्बे समय से एक विधवा का जीवन व्यतीत कर रही थी। वह धीरे धीरे गरीब होती गयी। कई दिन ऐसा होता था कि उसके पास खाने को भी नहीं होता था। कई रातों उसके पास काफी गरम ओढ़ने को भी नहीं होता था। उसके बावजूद परमेश्वर उसके साथ वफादार रहा। उसने परमेश्वर के सुरक्षा कवज को महसूस किया था जो उसे पंखों कि आड़ में छुपाये हुए था। परमेश्वर उसके बहुत करीब था। वह उससे कितना प्रेम करता था! उसके पास ज़यादा कुछ भी नहीं था, परन्तु उसके पास जो भी था वह उसके लिए था। अपने अंतिम दो सिक्कों के साथ, वह मंदिर में गयी।
फसह का पर्व एक बार फिर आ गया था, और हमेशा कि तरह वह अपना दान प्रभु को देना चाहती थी। जब उसने प्रवेश किया, तब मंदिर पर फरीसी खड़े अपनी प्रतिष्ठित आवाज़ों में बात कर रहे थे। जो लोग मंदिर में अपनी भेटों को परमेश्वर के लिए चढ़ाने के लिए लाते थे, यह लोग उनके प्रति घृणा को ढांपते नहीं थे। वह विधवा स्त्री वहाँ से गुज़री और उन्होंने ने उसे देखा तक नहीं। जब उसने उनकी ओर दृष्टी की, तो उसने उनमें से एक को पहचान लिया। वह एक फरीसी का पुत्र था जिसके घर में वह अपने परिवार के साथ किराय पर रहती थी। यह स्थान कितना प्रेम से भरा हुआ था। लेकिन वे उस जगह उसके पति के चले जाने के बाद वहां नहीं रह सकते थे।
जब वह पिछले महीने का किराया नहीं दे पाई तो उसे बहुत बुरा लगा। फरीसी उससे बहुत क्रोधित था। उसके अनुसार उसका क्रोध जायज़ था जबकि उसने उसका सारा सामान ले लिया था। परन्तु यह परमेश्वर के साथ का पहला कदम था। वह उसके सुरक्षा के लिए अपने चारों ओर महसूस कर सकती थी। अजनबी उससे असामान्य दया दिखाते थे। दिन प्रति दिन उसका प्रभु उसके साथ वफादार था। वह कितना सामर्थी और पराक्रमी था। कितना प्रेमी और अच्छा परमेश्वर। जब वह मंदिर कि ओर जा रही तो यही सब सोचती हुई जा रही थी। उसने बहुत सालों तक परमेश्वर पर भरोसा करना और उस पर निर्भर करने को चुना था। वह अपने जीवन भर प्रशंसा करती रही और उसके विचार भी वैसे ही थे। उसका ह्रदय हर समय आनंदित रहता था।
जब वह मंदिर के भंडार कि ओर लाइन में बढ़ रही थी, वह धनवान लोगों के सिक्कों कि आवाज़ सुन रही थी। उसने सोचा,"निश्चय ही, वे परमेश्वर को महान दान देते हैं।" उसने अपने हाथों कि ओर उन सिक्कों को देखा। वे हास्यास्पद और हलके थे। उनका मूल्य कुछ भी नहीं था लेकिन वही सब कुछ थे। उसके विश्वास के इतने सालों के कारण, उसने परमेश्वर को वह सब कुछ दे दिया जो उसके पास था। वह उन्हें उसी तरह स्वीकार करेगा जिस प्रकार वह उसे स्वीकार करता है। उसने यह प्रार्थना की:
"'जो लोग, याकूब के परमेश्वर से अति सहायता माँगते, वे अति प्रसन्न रहते हैं।
वे लोग अपने परमेश्वर यहोवा के भरोसे रहा करते हैं,'"
उसके भीतर एक उज्जवल उम्मीद जागी और उसने अपने ह्रदय में कहा:
यहोवा ने स्वर्ग और धरती को बनाया है।
यहोवा ने सागर और उसमें की हर वस्तु बनाई है।
यहोवा उनको सदा रक्षा करेगा।
जिन्हें दु:ख दिया गया, यहोवा ऐसे लोगों के संग उचित बात करता है।
यहोवा भूखे लोगों को भोजन देता है।
यहोवा बन्दी लोगों को छुड़ा दिया करता है।
यहोवा के प्रताप से अंधे फिर देखने लग जाते हैं।
यहोवा उन लोगों को सहारा देता जो विपदा में पड़े हैं।
यहोवा सज्जन लोगों से प्रेम करता है।
यहोवा उन परदेशियों की रक्षा किया करता है जो हमारे देश में बसे हैं।
यहोवा अनाथों और विधवाओं का ध्यान रखता है किन्तु यहोवा दुर्जनों के कुचक्र को नष्ट करता हैं।
यहोवा सदा राज करता रहे!
सिय्योन तुम्हारा परमेश्वर पर सदा राज करता रहे!
यहोवा का गुणगान करो!
वह उसे जानती थी। वह जानती थी कि उसकी भेंट काफी थी। परमेश्वर का प्रेम बहुत महान था। वह उसके पंखों कि आड़ में रहती थी। उसके भीतरी जीवन में वह बहुतायत का जीवन था जो सब लोगों कि इस पृथ्वी पर से परे थी। क्यूंकि यह गरीब विधवा अपने विश्वास में बहुत धनवान थी।
यीशु के लिए मंदिर में वह दिन बहुत व्यस्त था। वह भविष्य के लिए बहुत ही उज्जवल और आकर्षक बातें सिखा रहा था। उसने येरूशलेम के अगुवों को फटकारा जो लोगों के विश्वास को अपने लिए उपयोग करते थे कि उनसे वे कमाँ सकें और अपने हुक्म उन पर चलाते थे। परन्तु वह यह भी जानता था कि इस्राएल में सब विरोधी नहीं थे। बहुत से परमेश्वर कि आराधना ह्रदय कि गहराई से करते थे। जिस समय वह मंदिर में पिता कि मर्ज़ी को पूरा करता था उसने देखा कि वे भी वैसा ही करते हैं।
एक दिन यीशु अपने चेलों के साथ मंदिर के भंडार के सामने खड़ा हुआ। लोग अपने दान परमेश्वर के लिए दे रहे थे। जो अमीर थे वे वहाँ अधिक दान लाते थे। ऐसा लगता था मानो वे परमेश्वर को बहुतायत से देना चाहते हैं। इस जीवन में वे बहुत अशिक्षित थे! बहुत से यहूदी यह मानते थे कि परमेश्वर को अधिक देने से वह प्रसन्न होता है। वास्तव में, इस्राएल में बहुत से यह मानते थे कि परमेश्वर धनवान लोगों को अधिक आशीष देता है क्यूंकि वे गरीबों से अधिक धार्मिक थे।
गरीबों को कितना अपमान सहना पड़ता था। ना केवल वे दुखी होते थे और गरीबी के साथ संघर्ष करते थे, उन्हें निंदा के साथ जीना पड़ता था क्यूंकि वे गरीब थे। एक बार फिर, यीशु ने आकर विनाशकारी झूठ के विरुद्ध एक उज्जवल और खुबसूरत सच सुनाया।
यीशु दान-पात्र के सामने बैठा हुआ देख रहा था कि लोग दान पात्र में किस तरह धन डाल रहे हैं। बहुत से धनी लोगों ने बहुत सा धन डाला। फिर वहाँ एक गरीब विधवा आई और उसने उसमें दो दमड़ियाँ डालीं जो एक पैसे के बराबर भी नहीं थीं।
यीशु उसके इतने करीब नहीं था परन्तु उसने पवित्र आत्मा कि सुनी। यहाँ एक स्त्री थी पूरे इस्राएल में जिसकी भक्ति सच्ची थी। परमेश्वर का पुत्र यह देख कर अचंबित हुआ। फिर उसने अपने चेलों को पास बुलाया और उनसे कहा, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, धनवानों द्वारा दान-पात्र में डाले गये प्रचुर दान से इस निर्धन विधवा का यह दान कहीं महान है।"
उस विधवा के आनंद कि कल्पना कीजिये! उन सब प्रभावशाली लोगों में इस विधवा का ज़बरदस्त विश्वास था जिससे परमेश्वर का पुत्र आनंदित हुआ।