कहानी २१: परमेश्वर, बारह वर्ष की उम्र में|

यूसुफ़ और मरयम इज्ज़तदार यहूदी थे । वे परमेश्वर के नियमों का पालन करते थे और अपने चाल चलन के द्वारा परमेश्वर के पवित्र लोगों को दिए गए आदेशों का मान रखते थे । हर साल एक विशेष यहूदी पर्व मनाया जाता था जिसे फसह का पर्व कहा जाता है । यह त्यौहार उस रात को स्मरण करता है जब परमेश्वर ने अपने लोगों को मिश्र देश की गुलामी से उद्धार दिया था ।

परमेश्वर के लोगों के इतिहास में वह एक अंधेरा समय था । मूसा बार बार फिरौन के सामने जा चूका था परमेश्वर का यह आदेश पहुँचाने के लिए की उसके लोगों को छोड़ दिया जाए । लेकिन फिरौन ने बार बार इनकार किया । और इस वजह से प्रभु ने मिश्र देश पर एक के बाद एक महामारियाँ भेजी । लाखों टिड्डियाँ, मक्खियाँ और मेंडक वहां की धरती पर फैल गए । भयंकर ओले बरसे, लोगों के जिस्मों पर फोड़ों का श्राप लगा, लेकिन फिर भी फिरौन मना करता गया । दुनिया के सबसे सामर्थी मनुष्य और सर्वशक्तिमान यहोवाह के प्रतापी बल का महामुकाबला हुआ । परमेश्वर ने ताड़ना को बढ़ाते हुए भी फिरौन को मौक़े पर मौक़ा दिया, लेकिन फिर भी वह इस्राएलियों को छोड़ने के लिए राज़ी न हुआ । फिर परमेश्वर ने एक अंतिम भयंकर प्रभावशाली ताड़ना की तय्यारी की ताकि बात घमण्डी राजा के दिल तक पहुंचे ।

परमेश्वर मिश्र देश के हर परिवार के पहले बेटे की जान लेने वाला था । अब तक मिश्र के लोग इस्राएलीयों के बेटों की जान ले रहे थे । बचपन में स्वयं मूसा को भी छिपाना पड़ा था ताकि उसकी जान बचाई जा सके । लेकिन अब वे अपने किए का फल पाने वाले थे । रात के अन्धकार में परमेश्वर का स्वर्गदूत आकर उनके बेटों से जान खींच ले जाने वाला था । लेकिन परमेश्वर चाहता थी कि इस दुर्घटना से उसके अपने लोग बचाए जाएँ, इस लिए उसने मूसा को ख़ास आदेश दिए । इस्राएल के हर परिवार को अपने बेटे के स्थान में एक पहलौठे मेमने का लहू लेना था । उस लहू से उन्हें अपने घर के द्वारों पर निशान लगाना था ताकि स्वर्गदूत को मालूम पड़ जाए कि उसे उस घर को छोड़कर आगे बढ़ना है । कल्पना कीजिये उस रात के सन्नाटे और प्रतीक्षा को । कल्पना कीजिये उस शोकित रोने-तड़पने को, जब मिश्र के लोगों ने उसी दर्द का सामना किया जो उन्होंने अब तक तत्परता के साथ अपने इस्राएली पड़ोसियों को पहुँचाया था । और इस ताड़ना से कोई सुरक्षित न था । उस अंधेरी रात के दौरान, फ़िरौन ने भी अपने बेटे को खो दिया । मिश्र देश का युवराज अपने घमण्डी पिता के कुकर्मों की वजह से अपनी जान खो बैठा, और अब उसका पिता बुरी तरह से टूट गया था । अपनी पीड़ा में और गहरा सदमा लगने के कारण, फ़िरौन ने मूसा को अपने लोगों समेत चले जाने का आदेश दे दिया ।

उसी सवेरे जब इस्राएली लोगों ने जाने की तय्यारी में अपना सारा सामान इक्कट्ठा किया, परमेश्वर ने मिश्र के लोगों के दिलों में कार्य किया । उन्होंने इस्राएल के लोगों को बड़े तोफ़ों के साथ रवाना किया, सोना और चांदी और खज़ाना । इतनी दौलत इन गुलामों के हाथ में पहले कभी न आई थी । एक दिन, यह दौलत परमेश्वर के तम्बू में संदूक और उपकरणों की बनावट में इस्तमाल होने वाली थी ।

परमेश्वर के बच्चों के लिए यह कैसा शोभायमान आज़ादी का दिन था । उन्होंने परमेश्वर को आश्चर्यजनक रीतियों से उनकी रक्षा करते हुए देखा । उनके प्रभु ने कल्पनातीत तरीकों से उनकी रक्षा करी और उनके लिए प्रबंध किये ।

प्रभु की गहरी इच्छा थी की जब उसके लोग उसकी रक्षा और प्रबंध पर भरोसा रखें, वह उनके साथ रिश्ते में बढ़ता जाये । उसने उन्हें आदेश दिया कि वे हर साल फसह को एक महापर्व के तौर पर स्मरण करें । इस्राएल के पुरुषों को परिवार समेत यरूशलेम की यात्रा करनी थी । उन्हें यह पवित्र त्यौहार एक पूरे सप्ताह मनाना था, एक देश होकर । परमेश्वर की अतिशय विश्वासयोग्यता को ध्यान में रखने से वे वफ़ादारी से उसपर निर्भर रहने में मदद पा सकते थे और इसी तरह आने वाली सदियों में उसके प्रति विश्वासयोग्य हो सकते थे ।

परमेश्वर के उद्धार की यही कहानियाँ यीशु ने भी अपने बचपन में सीखीं । जब वह बारह वर्ष का हुआ, तो वह यहूदी प्रौढ़ता की उम्र पर पहुंचा । उसके परिवार ने फसह के समय यरूशलेम की वार्षिक यात्रा की । यह तीन दिन का पैदल रास्ता था, नासरत की धूल-भरी सड़कों से शहर यरूशलेम तक । कल्पना कीजिये उस लम्बे सफ़र की, परिवार के हर सदस्य के साथ, भाई-बहन, ताऊ-चाचे और उनके परिवार, सब साथ में पैदल चलते हुए । सब पड़ौसी भी यही यात्रा कर रहे थे और पूरा इस्राएल देश इस उत्सव की तय्यारियों में लगा हुआ था । उस शाम के भोजन की कल्पना कीजिये जहां पुराने नियम की कहानियां सुनाई और दुहराई जा रही थीं । जो परिवार इस यात्रा पर आये थे, वह वे परिवार थे जिन्होंने परमेश्वर के वचन का मान रखने का निर्णय लिया था । प्रभु ने आज्ञा दी थी कि पुराने नियम को अपने बच्चों के मनों में गहराई से बैठाया जाए, और इस आज्ञा को पूरा करने के लिए दाउद के शहर के लम्बे सफ़र से बहतर कौनसा समय हो सकता था ?

यूसुफ और मरियम और उनका परिवार शहर में रहने वाले थे, शानदार उत्सव में यहोवा को बालियाँ चढ़ाने के लिए, दावतों और आराधना के लिए । उन्होंने अपने दिलों में वह रहस्य कैसे छिपा के रखा होगा, उस बच्चे के विषय में जिसे वे अपने साथ लाये थे ? क्या वे पूरी तरह से समझे थे की वे स्वयं परमेश्वर को अपने साथ उसके शहर में लाये थे ? क्या वे जानते थे कि वे उसी के साथ चल रहे थे जिसकी उपस्थिति उस प्रतापी मंदिर के सबसे पवित्र स्थान में थी ? और जब वे बालियाँ चढ़ा रहे थे, क्या वे समझ रहे थे कि जिस प्रभु के नाम चढ़ावा हो रहा था, वह वहीं उन्ही के निकट खड़ा था ? हम निश्चयता से नहीं कह सकते कि मरियम और यूसुफ यीशु के बारे में कितना जानते थे, उस अद्भुत यीशु के बारे में, वह सब जो वह था और है । और बाकी के देश का क्या कहना जो बिलकुल ही नहीं जानता था कि जिस परमेश्वर की वे आराधना करने आये थे, उन्ही के बीच एक युवक के रूप में चल रहा था !

त्यौहार समाप्त होने के बाद, यीशु के परिवार ने अपना सामान बाँधा । हज़ारों लोग वहां से घर लौटने की तय्यारी कर रहे थे, और मरियम और यूसुफ़ अवश्य परिवार और मित्रों से घिरे हुए होंगे, जो सब यरूशलेम से साथ निकलने वाले थे । जब वे वहां से चल पड़े, उनका ध्यान इस बात पर नहीं पड़ा कि यीशु उनके साथ न था ! उन्होंने सोचा की वह उनके प्रिय जानो की भीड़ में कहीं होगा । उन्होंने एक पूरे दिन की यात्रा की, बिना जाने कि वह उनके साथ नहीं था । कल्पना कीजिये मरियम के भय की जब उसे मालूम हुआ की उसका प्रिय पहलौठा लापता है ! उसने परमेश्वर के पुत्र को खो दिया था !

तुरंत ही उसे ढूँढने के लिए वे यरूशलेम को लौटे । तीन भयंकर दिनों तक वे उसे ढूँढ़ते रहे । वे सोच ही न पा रहे थे की वह गया कहाँ होगा ! आख़िरकार वे उसे ढूँढ़ते ढूँढ़ते मंदिर तक पहुंचे । और वहां वह बैठा मिला, देश के शिक्षकों के साथ । वह उन शिक्षकों की बातें सुन रहा था और तरह तरह के सवाल कर रहा था । जैसे जैसे वे शिक्षक और मंदिर में उपस्थित परमेश्वर-भक्त उस बालक की बातें सुन रहे थे, वे आश्चर्यचकित थे कि वह कैसी बातें समझ और समझा पा रहा था ।

उसके माता-पिता भी आश्चर्यचकित थे, लेकिन दुसरे कारण से । मरियम ने कहा, "पुत्र, तुम ने हमारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कीया ? तुम्हारे पिता और मै व्याकुलता से तुम्हे ढूँढ रहे थे ।"

यीशु ने अपनी माता को देखा, "तुम क्यों ढूँढ रहे थे मुझे ?" उसने पुछा । "क्या तुम नहीं जानते थे कि मुझे अपने पिता के घर में होना था ?" कितना कठिन रहा होगा उनके लिए इस बात को समझना, कि उनका बेटा परमेश्वर का पुत्र था !

यीशु अपने माता पिता के साथ वापस नासरत के नगर को लौटा, और विश्वासयोग्य पुत्र की तरह उनके प्रति आज्ञाकारी बना रहा । इस दौरान मरियम ने इन सब बातों को अपने ह्रदय में संभल कर रखा, और अपने बेटे को बुद्धि और डील डौल में बढ़ते देखा । जैसे जैसे वह पुरुषत्व की और बढ़ता गया, उसके ऊपर परमेश्वर का अनुग्रह बना रहा, और उसके धार्मिक जीवन के कारण उसने अपने प्रति लोगों कीकृपादृष्टि भी पायी ।

यह किस्सा तब का है जब यीशु बारह वर्ष का था । बाईबल में यीशु के जीवन की अगली कहानी तब की है जब उसने अपने प्रचार और चंगाई की सेवकाई शुरू की । तब वह लगभग तीस वर्ष का था । बीच में अठारा वर्ष गुज़रे । हम जानते हैं की उस दौरान यीशु अपने पिता की तरह बढ़ई बना । उसने अपने हाथों से महनत करी, लकड़ी से कारीगरी कर के वस्तुएं बनायीं । वह अपने पड़ोसियों के सामान की और हलों की मर्रम्मत करता, और पिता के कारखाने में सेवा करता । यीशु पहलौठा अवश्य था, पर मरियम और यूसुफ़ को और भी कई बच्चे हुए । हम किसी हद तक निश्चित हैं की उन अठारा वर्षों में किसी समय यूसुफ़ का देहांत हो गया । परिवार की कमाई और भाई-बहनों की देखभाल का उत्तरदायित्व यीशु के कन्धों पर पड़ा । यह आवश्यक बातें यीशु की विश्वासी आज्ञाकारिता थीं, उस समय तक जब उसके स्वर्गीय पिता की बुलाहट उसे इस्राएलियों के प्रति लोक सेवकाई में ले चली । और वहीं अगली कहानियाँ शुरू होती हैं ।