कहानी १०७: शिष्यत्व की कीमत
यीशु जब यहूदिया में उपदेश दे रहा था, वहीं एक आदमी उठ खड़ा हुआ और उससे एक सवाल पूछा। यह उसके माता पिता से विरासत में मिलने वाली सम्पत्ति के बारे में था। वह चाहता था कि उसके भाई उसके साथ बटवारा करे। आम तौर पर, यहूदी लोगों के लिए, इन प्रश्नों के इन प्रकार के उत्तर परमेश्वर की व्यवस्था के द्वारा दिए जाते थे। यहूदी लोग केवल वही कर सकते थे जो उनका कानून बताता था, और ऐसा करने से आपस में सब सीधे और निष्पक्ष होता था।यह परमेश्वर कि ओर से एक अद्भुत उपहार है। इससे एक व्यवस्थित समाज बनता था। लेकिन कभी कभी, जिसे कानून ढाँपता नहीं था वह एक समस्या बन जाती थी। सो लोग अपने रब्बी या धार्मिक अगुवों के पास जाते थे, जहां निर्णय लेने के लिए उनसे पूछते थे।
फिर वह व्यक्ति यीशु के और भीड़ के सामने खड़ा होकर उसी कहने लगा कि वह उसके भाई से पिता की सम्पत्ति का बँटवारा करने को कह दे। लेकिन यीशु को उसका स्वर्गीय पिता कि ओर से एक कार्य सौंपा गया था और यह मामला उस कार्य का हिस्सा नहीं था। इस पर यीशु ने उससे कहा,“'ओ भले मनुष्य, मुझे तुम्हारा न्यायकर्ता या बँटवारा करने वाला किसने बनाया है?'” यहाँ इस व्यक्ति के सामने जीवते परमेश्वर का बेटा खड़ा था जिसके पास चंगाई करने कि सामर्थ थी, और उसे अपनी सम्पत्ति कि पड़ी थी! यीशु लोगों को परमेश्वर के लिए धनवान बना रहा था और ना कि धन के लिए।
सो यीशु ने उनसे कहा,“'सावधानी के साथ सभी प्रकार के लोभ से अपने आप को दूर रखो। क्योंकि आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति होने पर भी जीवन का आधार उसका संग्रह नहीं होता।'”
फिर उसने उन्हें एक दृष्टान्त कथा सुनाई:
“'किसी धनी व्यक्ति की धरती पर भरपूर उपज हुई। वह अपने मन में सोचते हुए कहने लगा,‘मैं क्या करूँ, मेरे पास फ़सल को रखने के लिये स्थान तो है नहीं।’
“फिर उसने कहा, ‘ठीक है मैं यह करूँगा कि अपने अनाज के कोठों को गिरा कर बड़े कोठे बनवाऊँगा और अपने समूचे अनाज को और सामान को वहाँ रख छोड़ूँगा। फिर अपनी आत्मा से कहूँगा, अरे मेरी आत्मा अब बहुत सी उत्तम वस्तुएँ, बहुत से बरसों के लिये तेरे पास संचित हैं। घबरा मत, खा, पी और मौज उड़ा।’
“किन्तु परमेश्वर उससे बोला, ‘अरे मूर्ख, इसी रात तेरी आत्मा तुझसे ले ली जायेगी। जो कुछ तूने तैयार किया है, उसे कौन लेगा?’
“देखो, उस व्यक्ति के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है, वह अपने लिए भंडार भरता है किन्तु परमेश्वर की दृष्टि में वह धनी नहीं है।'” --लूका १२:१५-२१
यीशु इस दृष्टान्त में क्या कहने की कोशिश कर रहा था क्या आप समझ पाये? क्या आप इसे समझा सकते हैं? इस कहानी में, यह सुनना महत्वपूर्ण है कि यह आदमी क्या कह रहा है ताकि हम उसके ह्रदय के उद्देश्य को समझ पाएं। उसका एक ही उद्देश्य था कि जब तक हो सके वह अपने जीवन को कैसे अच्छा बनाय। उसके जीवन के एक ही उद्देश्य था सुख और चैन। वह अपने स्वार्थ के लालच में डूब चूका था। उसने कभी नहीं यह सोचा कि परमेश्वर को कुछ दे। उसने कभी नहीं सोचा कि गरीबों कि देख भाल में वह परमेश्वर कि सेवा कर सकता है। यीशु ने यह सिखाया था कि गरीबों के लिए करना मतलब परमेश्वर के लिए करना है। क्या परमेश्वर कि दया और करुणा सुंदर नहीं है? क्या एक लालची मनुष्य घृणायोग्य नहीं लगता जब उसके विषय में यह सोचते हैं कि वो अपनी सारी सम्पत्ति से गरीबों कि सेवा कर सकता था?
केवल धन ही नहीं था जिसे यीशु ने अपने चेलों को परमेश्वर कि इच्छा के आगे समर्पण करने को कहा। उन्हें अपने जीवन के सारे अधिकारों को उसके आगे समर्पण करना था! यह एक मौलिक निवेदन था। यीशु जैसे अपने प्रचार को करते जा रहा था, वह जानता था कि इन घोषणाओं के कारण जो उसने धार्मिक अगुवों के विरुद्ध किये वे उसे और खतरे में दाल रहे थे। उसके चेले भी यह जानते थे। हर शहर और गाव में उसके साथ रहने में उनकी यीशु के प्रति निष्ठां दिखती थी, और उनके जीवन जोखिम में पड़ गए थे। जितना अधिक चेले यीशु के साथ साथ चलते थे, उतना ही यह स्पष्ट होता जाता था कि वे संसार को सुरक्षा प्रदान कर रहे थे। वे वो मनुष्य थे जिनके पास खुद के घर नहीं थे लेकिन वे इस यात्रा में लगे रहे, दुश्मनों का सामना किया, और उस सामर्थी सत्य कि घोषणा करते रहे।
जिस समय यीशु बोलता था, उसका स्वर्ग को लेकर एक स्पष्ट दृश्य था जहाँ स्वर्गीय पिता अपने सम्पूर्ण सामर्थ में अपने सिंहासन पर विराजमान है। मनुष्य रूप में होकर वह पवित्र आत्मा कि सामर्थ के द्वाराअपने पूर्ण भरोसा रख कर, वह वास्तव में अपना स्थान इस पृथ्वी पर जानता था और परमेश्वर कि योजनाओ पर पूरा भरोसा था। वह अपने अनंतकाल के घर को लौट रहा था, और इस पृथ्वी कि परीक्षाएं उस आसमानी बाप के राज्य के उज्जवल बातों के सामने व्यर्थ थे।
लेकिन उसके चेलों के लिए और वे सब जो उसके पीछे चल रहे थे, उनके लिए यह अनंतकाल का दृश्य अभी बढ़ रहा था। इस दुनिया के शान और शौकत, दुसरे लोगों की बातें और पीड़ा और मौत का डर सब उनके ह्रदयों में वास कर रहा था।
यीशु उन्हें स्वर्ग के राज्य के सदस्य बनने के विषय में समझा रहा था। उन्हें इस संसार में अपने जीवन को स्वर्ग में जाने के की तैयारी का स्थान समझना चाहिए। वे इस जीवन को परित्याग और स्वतंत्रता के रूप में जीना चैये, इस बात का विश्वास करते हुए कि परमेश्वर जो सिंहासन पर विराजमान है उनकी सब ज़रूरतों को पूरा करेगा जब तक वे इस संसार में हैं। उसने कहा:
“'इसीलिये मैं तुमसे कहता हूँ, अपने जीवन की चिंता मत करो कि तुम क्या खाओगे अथवा अपने शरीर की चिंता मत करो कि तुम क्या पहनोगे? क्योंकि जीवन भोजन से और शरीर वस्त्रों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। कौवों को देखो, न वे बोते हैं, न ही वे काटते है। न उनके पास भंडार है और न अनाज के कोठे। फिर भी परमेश्वर उन्हें भोजन देता है। तुम तो कौवों से कितने अधिक मूल्यवान हो।चिंता करके, तुम में से कौन ऐसा हे, जो अपनी आयु में एक घड़ी भी और जोड़ सकता है। क्योंकि यदि तुम इस छोटे से काम को भी नहीं कर सकते तो शेष के लिये चिन्ता क्यों करते हो?
“कुमुदिनियों को देखो, वे कैसे उगती हैं? न वे श्रम करती है, न कताई, फिर भी मैं तुमसे कहता हूँ कि सुलैमान अपने सारे वैभव के साथ उन में से किसी एक के समान भी नहीं सज सका। इसीलिये जब मैदान की घास को, जो आज यहाँ है और जिसे कल ही भाड़ में झोक दिया जायेगा, परमेश्वर ऐसे वस्त्रों से सजाता है तो ओ अल्प विश्वासियो, तुम्हें तो वह और कितने ही अधिक वस्त्र पहनायेगा।
“और चिन्ता मत करो कि तुम क्या खाओगे और क्या पीओगे। इनके लिये मत सोचो। क्योंकि जगत के और सभी लोग इन वस्तुओं के पीछे दौड़ रहे हैं पर तुम्हारा पिता तो जानता ही है कि तुम्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता है। बल्कि तुम तो उसके राज्य की ही चिन्ता करो। ये वस्तुएँ तो तुम्हें दे ही दी जायेंगी।'"
इन विचारों में से कुछ परिचित लग रहा है? ये शब्द लूका की किताब से हैं, लेकिन मत्ती ने भी बहुत सी बातों को पर्वत पर उपदेश में भी डाली हैं। ये विचार यीशु के लिए इतने महत्वपूर्ण थे कि वह उनका प्रचार करता रहा। उसे मालूम था कि मनुष्य के लिए दुनियावी बातों को छोड़ कर परमेश्वर कि आशा को अपनाना कितना कठिन था। उसके उज्जवल राज्य कि सच्चाई को अपनाने के लिए बहुत समय और बढ़ते हुए विश्वास कि ज़रुरत होती है।
परमेश्वर जानता है कि उसके बच्चों को इस जीवन में भोजन और कपड़े की जरूरत है। लेकिन वह चाहता है कि उसके बच्चे सब चीज़ों के लिए केवल उस पर भरोसा करें। वो ह्रदय कितना सुन्दर है जो गरीबों कि आवश्यक्ताओं के लिए सोचता है। वो ह्रदय कितना सम्पूर्ण और दृढ़ है जो परमेश्वर पर भरोसा करता है कि वो उसके लिए सब कुछ करेगा! यीशु कि कितनी इच्छा थी कि उसके चेले उसे अपना सबसे बहुमूल्य खज़ाना बना लें! एक मात्र महत्वपूर्ण केवल वही है!