कहानी ५५: पहाड़ी उपदेश: न्याय के बारे में राज्य के नियम - भाग २

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यीशु ने पहाड़ी उपदेश में फिर मूसा द्वारा व्यवस्थाविवरण की पुस्तक में दी गई व्यवस्था पर बात की। यह कहती थी: "एक आंख के बदले एक आंख, एक दाँत के बदले एक दाँत।" यह कानून इस्राएल के देश को न्याय लाने के लिए एक शक्तिशाली तरीके के रूप में दिया गया था। अगर एक व्यक्ति एक और इस्राएली को नुकसान पहुंचाए, तो उसे ठीक उसी तरह दंडित किया जाएगा जैसा उसने अपराध किया था।अगर आप किसी की आंख को नोचते है, तो न्याय के रूप में आपको अपनी आंख को भी खोना आवश्यक था! यह एक दूसरे की आंखों को नोचने से रोकने के लिए एक अच्छा तरीका था। यह तभी लागू था अगर आप उनके दांत तोड़ देते या उन्हें किसी और तरीके से चोट पहुंचाते।

यह कानून न केवल एक दूसरे को चोट पहुँचाने से लोगों को रोकता था, पर नुक्सान हो जाने के बाद भी उन्हें संरक्षित करता था। अगर आप किसी की आंख बाहर नोच लेते, तो वह आपकी दोनों आँखें निकालने के लिए मांग नहीं कर सकता था। आपको अपने सिर कटने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी। आपको सबसे संकीर्ण सजा वो ही मिलती जो आपने दूसरे व्यक्ति को नुकसान पहुँचाया।

यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण, न्यायपूर्ण कानून था। पुराने नियम के दौरान जनजातियों और जातियों में से कई में यह नियम नहीं था। इसके बिना, शक्तिहीन, गरीब या दोस्त रहित लोगों का जीवन बहुत कठिन बन गया था। अगर आप एक गरीब आदमी होते, और एक अमीर आदमी की आंख बाहर नोच लेते, तो वह आपको मरवा सकता था। अगर आप किसी का दांत तोड़ दे, तो उसका पूरा परिवार आपके पीछे आकर आपके दोनों पैरों को तोड़ सकते थे। आपको चोट  पहुँचाना और बेइज्ज़त करना उनके लिए परिवार के सम्मान की बात बन जाती। फिर आपके परिवार वाले कुछ और भी बदतर करना चाहते जिससे वो मुंह दिखाने लायक रहते। आपके भाई और चचेरे भाई वहां जा के उनके परिवार के हर सदस्य के पैर तोड़ देते ताकि वो बदला ले सके। पूरे परिवार और जनजातियां, सदियों के लिए एक दूसरे के खिलाफ कड़वी लड़ाई छेड़ देते। इसके बजाय कि यह न्यायपूर्वक समाप्त हो जाए, बात और अधिक तीव्र और खतरनाक हो जाती। सबसे शक्तिशाली आदमी या कबीला या परिवार, कमजोर लोगों को आतंकित कर उन पर हावी होते।  परमेश्वर अपने पवित्र देश की जनजातियों और कुलों के लिए यह नहीं चाहते थे। वो शांति और न्याय चाहते थे। " एक आँख के बदले एक आंख और एक दांत के बदले एक दांत" एक शापित दुनिया में लोगों की रक्षा के लिए न्याय के रूप में उत्कृष्ट था।

अब यीशु एक और भी उच्च स्तर का परिचय कर रहे थे। यह उनके राज्य का स्तर था। यह इतना उच्च है कि आपकी सांस थमा जाएगी।उन्होंने कहा :

“तुमने सुना है: कहा गया है, ‘आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत।’ किन्तु मैं तुझ से कहता हूँ कि किसी बुरे व्यक्ति का भी विरोध मत कर। बल्कि यदि कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी उसकी तरफ़ कर दे। यदि कोई तुझ पर मुकद्दमा चला कर तेरा कुर्ता भी उतरवाना चाहे तो तू उसे अपना चोगा तक दे दे। यदि कोई तुझे एक मील चलाए तो तू उसके साथ दो मील चला जा। यदि कोई तुझसे कुछ माँगे तो उसे वह दे दे। जो तुझसे उधार लेना चाहे, उसे मना मत कर।
मत्ती ५ः३८-४२

वाह। यह बहुत ही भव्य और पूरी उदारता है। क्या आपको यह संभव लगता है? क्या आप इतने उच्च मानक पर खरा उतरने की कल्पना कर सकते हैं? अगर कोई आपके पास आकर आपकी जैकेट मांगे, तो क्या होगा। क्या आप उसे थमा देंगे? अगर कोई आपको थप्पड़ मारे, तो क्या आप वहां खड़े रहकर मुंह मोड़ लेंगे ताकि वो आपको दूसरे गाल पर थप्पड़ मार सके? क्या यह सुनने में बुद्धिमानी लगती है? यह लगभग पागलपंता लगती है! यीशु का क्या मतलब था?

खैर, यीशु परमेश्वर के राज्य की स्थापना का काम कर रहे थे। उसके लोगों को परमेश्वर के रास्तों को दिखाना था।उन्हें इस शापित दुनिया के लिए नमक और प्रकाश होना था। वे नम्रता और करूणा के लोग बन कर इस दुनिया को आशीषित करते। उनका सम्मान और गरिमा, परम प्रधान परमेश्वर के गोद लिए हुए बच्चे बनने से था। जब वे इस शक्ति में खड़े होते हैं, वे उन अपमानो और शर्म को तुच्छ मान सकते है जो इस दुनिया में जीवन लाती है। वे यीशु की समानता में दिखना शुरू होंगे - वो यीशु जिसने क्रूस के अपमान को तुच्छ जाना ताकि वो उद्धार ला सके।

इस दुष्ट दुनिया में बलवंत होना, और अधिक शक्तिशाली होना, और पूरी तरह नियंत्रण में होने को महत्व दिया जाता है। सोचिये कि यह सोच कितनी अलग थी जब परमेश्वर के पुत्र इस पृथ्वी पर आए और रहे। वह ब्रह्मांड के सृष्टिकर्ता है! वे सबसे शक्तिशाली है! वो हर सितारे को जलाए रखता है और बादल को तैराता है। यीशु ने इतिहास के हर पल में, हर प्राणी को सांस दी है! फिर भी जब वह पृथ्वी पर आए, वह एक साधारण बढ़ई थे। उनके चेलें आम मजदूर थे। उन्होंने विश्वासघाती, स्वार्थी पुरुषों द्वारा क्रूस पर मौत को स्वीकारा! उस भयानक पल में ऐसा लगा जैसे यीशु ने खेल खो दिया है। यहां तक ​​कि, उनके चेलों ने इसे अंत मान लिया था। लेकिन उनके दुखदायी, सुंदर बलिदान से, यीशु ने शैतान की पूरी शक्ति पर विजय प्राप्त की। उन्होंने पूरी तरह से पाप और मृत्यु को नष्ट कर दिया।

उस आश्चर्यजनक कार्य के साथ, यीशु अपने राज्य के स्वरुप को प्रदर्शित कर रहे थे। परमेश्वर एक ऐसी शक्ति के साथ शापित दुनिया में प्रवेश कर रहे थे जो पाप से घिरे लोगों के लिए पराई थी। यह विनम्रता और प्यार की शक्ति है। वो चाहते है कि उसके राज्य के लोग उसी विनम्रता के साथ उसकी सेवा करे। उन्हें आत्मा में दरिद्र, नम्, दयालू, और यीशु की खातिर अत्याचार सहने के लिए तैयार होना है! उनके जीवन यीशु के उठाए कष्टों में भागीदार होंगे।यह आश्चर्यजनक और मुश्किल है, है नहीं? इसके लिए सच्चे बलिदान की आवश्यकता है! लेकिन यह आश्चर्यजनक भी है! परमेश्वर ने अपने चेलों को उसके काम में शामिल होने का विशेषाधिकार दिया है!

दैनिक जीवन में दूसरों के प्रति विनम्रता का चयन, बहुत कम इनाम के साथ एक बहुत बड़े बलिदान की तरह लग सकता है। अगर कोई आपको मारने की कोशिश करता है, तो आपको क्या करना चाहते है? भागना? वापस मारना? अगर कोई आपसे आपका कोट मांग ले, तो यह देना कितना मुश्किल है - विशेषकर अगर एक लंबी, ठंडी रात आगे बाकी है! यह चरम आज्ञाकारिता है! और अगर हम इन शब्दों को बहुत वास्तविक्ता में ले, तो हम वास्तव में खूनी और नग्न अवस्था में हो जाएंगे!

सोचने के लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि हमें हमेशा अपने सारे कपड़े देने या अपने आप को पिटवाने की आवश्यकता नहीं है। हम यह देखते है कि यीशु ने भी ऐसा हमेशा नहीं किया। धार्मिक नेताओं के साथ यीशु की कहानियों में, उन्होंने अक्सर वापस बात की। स्थिति प्रतिकूल होने पर, कभी कभी वह वहां से चले जाते थे।

जो यीशु हमसे चाहते है वो है दिल के रवैय्ये में बदलाव, जिससे हम अलग प्रकार के निर्णय ले सकते है। अगर मैं किसी को जरूरत में देखता हूँ, तो क्या मेरी पहली प्रतिक्रिया है कि मै स्वार्थपन में सब कुछ अपने लिए बटोर लूं, या मदद करने के तरीके देखूं? अगर कोई मेरे प्रति अपमानजनक है, तो क्या दया और विनम्रता दिखाना मेरी पहली प्रतिक्रिया है, या द्वेष के साथ वापस लड़ना? अगर आप शांति से गुस्से में आपको थप्पड़ मारने वाले को अपना गाल दे, तो कल्पना कीजिए क्या होगा! उनके गुस्से को दूर भागते कल्पना कीजिए! आप उन लोगों के विचारों की कल्पना कर सकते है जो इसे देख रहे है! हमें अपने आप से पूछना है ... क्या मै शांति बनाए रखने के लिए, कुछ भी करने को तैयार हूँ? क्या मैं सुलह लाने के लिए, एक शक्तिशाली विनम्रता दिखाने के लिए तैयार हूँ? क्या एक गौरवशाली ताकत! प्रभु यीशु चाहते है कि हम जीवन का हर क्षण उसकी ताकत में होकर जिए; हर वो चीज़ करने को तैयार हो जो वो हमें बोलते है, चाहे वो कितना भी हमारे बलि और दीनता की मांग करे। अगर हमारे दिल उस में से जीते हैं, तो हम जानेंगे कि हम हर स्थिति में कैसे उसके आज्ञा का पालन कर सकते है। और क्यूंकि हम उसे प्यार करते हैं, हम उनकी इच्छा से सहमत हैं और वैसा ही करते है।

जैसे इसराइल को एक मरती हुए दुनिया में परमेश्वर की शुद्ध और पवित्र व्यवस्था को लाना था, मसीह उन व्यवस्थाओं के उच्चतम और पवित्रतम समझ के साथ इस्राएल के देश में प्रवेश कर रहे थे! यीशु ने अपने राज्य की प्रजा को अपनी विनम्रता की खूबसूरती से दुनिया के लिए नमक और प्रकाश होने को सिखाया। परमेश्वर के प्रति उनकी भक्ति इतनी होती कि वे स्वेच्छा उत्पीड़न भी झेल लेते। वे दुनिया को चकित कर देते। यह आज्ञाकारिता का जुनून पापी मनुष्य नहीं समझ पाएगा। वह इसकी व्याख्या भी नहीं कर सकते हैं! यीशु इस पूर्ण प्यार का पहला, आदर्श नमूना थे, लेकिन वह अपने चेलों को उसकी तरह चलने के लिए बुला रहे थे।