कहानी ५४: पहाड़ी उपदेश: वादों के बारे में राज्य के नियम

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परमेश्वर ने अपने सुनने वालों के साथ जो अगला राज्य आदर्श बांटा वो शपथ लेने के बारे में था। उन्होंने कहा:

फिर तुम सुन चुके हो, कि पूर्वकाल के लोगों से कहा गया या कि झूठी शपय न खाना, परन्‍तु प्रभु के लिए अपनी शपथ को पूरी करना।
परन्‍तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि कभी शपय न खाना; न तो स्‍वर्ग की, क्‍योंकि वह परमेश्वर का सिंहासन है।
न धरती की, क्‍योंकि वह उसके पांवों की चौकी है; न यरूशलेम की, क्‍योंकि वह महाराजा का नगर है।
अपने सिर की भी शपय न खाना क्‍योंकि तू एक बाल को भी न उजला, न काला कर सकता है।
- मत्ती  ५ः३३-३६

अब, परमेश्वर के शिक्षण का यह भाग हमें कुछ गड़बड़ा सकता है। पुराने नियम में, इस्राएलियों को शपथ लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।व्यवस्थाविवरण 10:20 यह कहता हैं, " अपने परमेश्वर यहोवा का भय मानना; उसी की सेवा करना और उसी से लिपके रहना, और उसी के नाम की शपय खाना। " ऐसा लगता है कि प्रेरित पौलुस ने नए नियम में शपथ खाई जब उसने रोमियों 1:9 में लिखा परमेश्वर जिस की सेवा मैं अपनी आत्मा से उसके पुत्र के सुसमाचार के विषय में करता हूं, वही मेरा गवाह है; कि मैं तुम्हें किस प्रकार लगातार स्मरण करता रहता हूं। क्या पौलूस ऐसा करके पाप कर रहा था?

खैर, सबसे पहले यहदेखते है कि कोई शपथ क्यूँ लेता था? यह लोगों के बीच सच बोलने को और विश्वास रखने को प्रोत्साहित करता  है। जब एक व्यक्ति एक प्रतिबद्धता बनाता है और वे चाहते है कि अन्य व्यक्ति जाने कि वे उसे अवश्य रखेगा, तो वे एक शपथ लेता  थे। अगर वो इसका पालन नहीं करते हैं, तो वह स्वयं के सम्मान और प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं। और अगर वे प्रभु के नाम की शपथ खाते है, और अगर वे परमप्रधान परमेश्वर का सम्मान अपने वादे से जोड़ते है; तो  परमेश्वर स्वयं ही न्याय करेगा अगर शपथ का आदर होता है! अन्य व्यक्ति इस शपथ से यह सांत्वना ले सकता है कि शपथ लेने वाला अपने वादा को रखने के लिए कितना गंभीर है। शपथ वादे के महत्व को उठाती है, और परमेश्वर के नाम का इस्तेमाल होने से, उसे पवित्र बना देती है।

क्या आप सोच सकते है यह दुनिया कितनी अदभुत हो जाएगी अगर हर कोई भरोसेमंद हो और अपने वादे पर अटल रहे? क्या आप सोच सकते है कि यह दुनिया कितनी भयानक हो जाएगी अगर हर कोई झूठा, मक्कार, और चालबाज़ ना हो? यह अंतर स्वर्ग और नरक के बीच के अंतर जैसा है!

यीशु के दिन में, धार्मिक नेताओं ने शपथ का उपयोग किया और उन्हें पूरी तरह से विकृत कर दिया। उन्होंने परमेश्वर के पवित्र व्यवस्था में अपने कानून जोड़े जो परमेश्वर ने वहां नहीं डाले थे। उदहारण के लिए, अगर आप शपथ ले रहे है और आपने कहा, "येरूशलेम से," तो इसको अवैध मन जाता था। पर अगर आपने शपथ ली "यरूशलेम को," आप एक पवित्र प्रण में बाध्य हो जाते थे। यह धोकेबाज़ी थी। यह लोगों को गंभीर होने के नाटक का एक बहाना देता था, और अगर वो मुसीबत में पड़े तो बाहर वापस निकलने के लिए एक रास्ता देता था। मासूम उन पर विश्वास करते, यह सोच कर कि वे एक बाध्य शपथ में है; लेकिन बाद में जानते कि यह धोकेबाज़ और बेईमान लोगों के लिए एक बचाव का रास्ता था।

धार्मिक नेताओं ने एक रास्ता निकाला था जिससे वो लोगों को चाल चल के यह विश्वास दिला देते कि वादा सुरक्षित था। जो कोई उनकी प्रणाली को न समझ पाते थे, उनका शिकार बन जाते थे। जब उन्हें सबसे अधिक भरोसमंद होने में सक्षम होना चाहिए था, तो उसी वक्त मासूम धोके के शिकार हो जाते! शपथ के सुरक्षात्मक शक्ति व्यर्थ हो गई थी।कितनी भयानक प्रणाली! यह झूठ और भ्रष्टाचार की रक्षा करती था!

यहूदी नेताओं ने एक ऐसी प्रणाली बनाई  जहाँ भरोसेमंद और निर्दोषलोगों को बेईमान और कपटी हाथों द्वारा कमजोर कर दिया जाता था। इसके बजाय कि परमेश्वर के लोगों और यहूदी समाज के बीच विश्वास का निर्माण हो, शपथ लेना संदेह का कारण बन गया। यह बुराई का बचाव करता था, और वह भी परमेश्वर के नाम से! वह व्यक्ति कितना दुष्ट होगा जो परमेश्वर के नाम का दुरूपयोग करके लोगों को ठगे! वो व्यक्ति कितना कलंकित होगा जो एक शपथ खा कर उसे पूरा न करे! कोई आश्चर्य नहीं है कि यीशु इससे इतनी घृणा करते थे!

यहूदी संस्कृति इस बेईमानी और छलयोजना के पाताल में इतनी डूबी हुई थी कि यीशु ने अपने राज्य के लोगों के लिए शपथ पूर्ण रूप से रद्द कर दिया। वो चाहते थे कि उनके अनुयायी ऐसे पुरुष और महिला हो जो सच बोले और अपने वादे को हर हाल में रखे। वो चाहते थे कि उनके अनुयायी एक दूसरे पर भरोसा कर सके, और अपने दृढ़ संकल्प से एक दुसरे की रक्षा ईमानदारी और स्पष्टता से करे। वह अपने धर्मी शब्दों के साथ कितनी अद्भुत राज्य की स्थापना कर सकते थे! उसके अनुयायी कितने अदभुत राज्य का निर्माण कर सकते हैं, अगर वो आज्ञाकार हो! निश्चित रूप से वो नमक की तरह हैं जो धार्मिक, परिपूर्ण रिश्तों के स्वाद को जगाते है - जहाँ भी वो जाए!

हम जैसे आगे बड़ते है, क्या आप देखते है कि यीशु जिन राज्य-व्यवहारों को वर्णित कर रहे हैं वो कितने महत्वपूर्ण हैं? हर संबंध में कुल ईमानदारी की इच्छा रखने के लिए बड़ी विनम्रता, नम्रता, और हृदय की पवित्रता की आवश्यकता है। हर शब्द के साथ, यीशु के शिष्यों को हमेशा सच बोलना चाहिए, जैसे की उनके स्वामी ने किया।जब हर कोई विश्वासयोग्यता से अपनी बात रखेगा, तो वो अपने को माननीय साबित करता है।उन्हें शपथ लेने की जरूरत नहीं है। उनके लिए 'हाँ' और 'नहीं' कहना काफी है। यह परमेश्वर के बच्चों के बीच गहरी और अदभुत विश्वास की स्थापना करती है जो एक समुदाय में लोगों को सुरक्षित रखती है और परमेश्वर के राज्य को एक माहान जगह बनाती है।

मसीह के राज्य के लोगों के लिए शपथ लेना गलत नहीं था। वो शपथ के कुटिल और अविश्वसनीय दुरूपयोग के खात्मे की मांग कर रहे थे जो यहूदी लोगों के बीच एक तौर तरीका बन गया था। वह अपने लोगों को भरोसेमंद होने के लिए बुला रहे थे ताकि शपथ लेने की कभी भी आवश्यकता न हो!