कहानी १०१: मिलापवाले तम्बू का पर्व: यीशु का अपने आप को प्रकट करना

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यरूशलेम के मंदिर के आंगनों में जहां यीशु सिखा रहे थे, वहाँ लोगों ने उस पर विश्वास किया। उसने उनसे कहा,“'यदि तुम लोग मेरे उपदेशों पर चलोगे तो तुम वास्तव में मेरे अनुयायी बनोगे। और सत्य को जान लोगे। और सत्य तुम्हें मुक्त करेगा।'”

अब जब यीशु ने स्वतंत्रता के विषय में बोला, वह पाप के विषय में बोल रहा था। यह उस श्राप का भयंकर परिणाम था जो आदम और हव्वा के परमेश्वर से दूर हो जाने के कारण हुआ। उन्होंने अपनी इच्छा को चुना और धार्मिकता कि रेखा को पार करके दुष्टता कि ओर शैतान कि बातों को सुनकर, कदम रखा। यीशु ने आकर पूरी कीमत चुकाई। वे उन सब के ह्रदय से श्राप के बल को मिटा देगा जो उसके कामों पर विश्वास करेंगे!  वे जिन्होंने यीशु के स्वतंत्र होने के वचन को सुना, क्रोधित हुए,“हम इब्राहीम के वंशज हैं और हमने कभी किसी की दासता नहीं की। फिर तुम कैसे कहते हो कि तुम मुक्त हो जाओगे?”

यीशु ने उत्तर देते हुए कहा,
“'मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। हर वह जो पाप करता रहता है, पाप का दास है। और कोई दास सदा परिवार के साथ नहीं रह सकता। केवल पुत्र ही सदा साथ रह सकता है। अतः यदि पुत्र तुम्हें मुक्त करता है तभी तुम वास्तव में मुक्त हो। मैं जानता हूँ तुम इब्राहीम के वंश से हो। पर तुम मुझे मार डालने का यत्न कर रहे हो। क्योंकि मेरे उपदेशों के लिये तुम्हारे मन में कोई स्थान नहीं है। मैं वही कहता हूँ जो मुझे मेरे पिता ने दिखाया है और तुम वह करते हो जो तुम्हारे पिता से तुमने सुना है।'”

यीशु इन लोगों को झूठ पर विश्वास करने कि अनुमति नहीं देने वाला था। वे यह सोचते थे कि इनके इब्राहिम के वंश के होने से उनको परमेश्वर के आगे विशेष हैसियत मिल गई है। पुराने नियम में लिखा है कि वे परमेश्वर कि संतान हैं। यह सच था, लेकिन अब परमेश्वर का सबसे बड़ा वादा उनके सामने था और वे उससे इंकार कर रहे थे। मसीह हर उस पाप के श्राप को मिटाने आया था जो मनुष्य का एक हिस्सा बन चूका था। केवल यीशु का जीवन सबसे पवित्र और पूर्ण था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे इब्राहिम के वंश के था या उन्होंने परमेश्वर के पुत्र को अस्वीकार कर दिया था। जो परमेश्वर कि ओर से दिया गया था वह उन्हें दे रहा था, लेकिन यहूदी उसे सुनने से इंकार कर रहे थे। वे अपने सच्चे पिता शैतान कि सुनने में लगे हुए थे।

इस पर उन्होंने यीशु को उत्तर दिया, “हमारे पिता इब्राहीम हैं।”
यीशु ने कहा,“'यदि तुम इब्राहीम की संतान होते तो तुम वही काम करते जो इब्राहीम ने किये थे।'" इब्राहिम अपने विशाल विशवास के लिए जाना जाता था। वह परमेश्वर के वचन को सुनकर उसे मानता था। यहूदी लोग उसके बिलकुल विपरीत थे। वे परमेश्वर के पुत्र से सुनते थे और उसी को मरवाना चाहते थे! यीशु ने कहा,"'पर तुम तो अब मुझे यानी एक ऐसे मनुष्य को, जो तुमसे उस सत्य को कहता है जिसे उसने परमेश्वर से सुना है, मार डालना चाहते हो। इब्राहीम ने तो ऐसा नहीं किया। तुम अपने पिता के कार्य करते हो।'”

फिर उन्होंने यीशु से कहा,“हम व्यभिचार के परिणाम स्वरूप पैदा नहीं हुए हैं। हमारा केवल एक पिता है और वह है परमेश्वर।”

यीशु ने उन्हें उत्तर दिया,
“'यदि परमेश्वर तुम्हारा पिता होता तो तुम मुझे प्यार करते क्योंकि मैं परमेश्वर में से ही आया हूँ। और अब मैं यहाँ हूँ। मैं अपने आप से नहीं आया हूँ। बल्कि मुझे उसने भेजा है। मैं जो कह रहा हूँ उसे तुम समझते क्यों नहीं? इसका कारण यही है कि तुम मेरा संदेश नहीं सुनते। तुम अपने पिता शैतान की संतान हो। और तुम अपने पिता की इच्छा पर चलना चाहते हो। वह प्रारम्भ से ही एक हत्यारा था। और उसने सत्य का पक्ष कभी नहीं लिया। क्योंकि उसमें सत्य का कोई अंश तक नहीं है। जब वह झूठ बोलता है तो सहज भाव से बोलता है क्योंकि वह झूठा है और सभी झूठों को जन्म देता है।पर क्योंकि मैं सत्य कह रहा हूँ, तुम लोग मुझमें विश्वास नहीं करोगे। तुममें से कौन मुझ पर पापी होने का लांछन लगा सकता है। यदि मैं सत्य कहता हूँ, तो तुम मेरा विश्वास क्यों नहीं करते? वह व्यक्ति जो परमेश्वर का है, परमेश्वर के वचनों को सुनता है। इसी कारण तुम मेरी बात नहीं सुनते कि तुम परमेश्वर के नहीं हो।'”

इस बात को सुनकर यहूदी क्रोधित हुए। यह कौन था जिसने उन्हें मंदिर के आँगन में उनका अपमान किया! उसकी कैसे हिम्मत हुई यह कहकर कि वे शैतान कि संतान हैं! यहूदियों ने उससे कहा,“यह कहते हुए क्या हम सही नहीं थे कि तू सामरी है और तुझ पर कोई दुष्टात्मा सवार है?”

यीशु ने उत्तर दिया,“'मुझ पर कोई दुष्टात्मा नहीं है। बल्कि मैं तो अपने परम पिता का आदर करता हूँ और तुम मेरा अपमान करते हो। मैं अपनी महिमा नहीं चाहता हूँ पर एक ऐसा है जो मेरी महिमा चाहता है और न्याय भी करता है। मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ यदि कोई मेरे उपदेशों को धारण करेगा तो वह मौत को कभी नहीं देखेगा।'”

इस पर यहूदी नेताओं ने उससे कहा,“अब हम यह जान गये हैं कि तुम में कोई दुष्टात्मा समाया है। यहाँ तक कि इब्राहीम और नबी भी मर गये और तू कहता है यदि कोई मेरे उपदेश पर चले तो उसकी मौत कभी नहीं होगी। निश्चय ही तू हमारे पूर्वज इब्राहीम से बड़ा नहीं है जो मर गया। और नबी भी मर गये। फिर तू क्या सोचता है? तू है क्या?”

यीशु ने उत्तर दिया,“'यदि मैं अपनी महिमा करूँ तो वह महिमा मेरी कुछ भी नहीं है। जो मुझे महिमा देता है वह मेरा परम पिता है। जिसके बारे में तुम दावा करते हो कि वह तुम्हारा परमेश्वर है। तुमने उसे कभी नहीं जाना। पर मैं उसे जानता हूँ, यदि मैं यह कहूँ कि मैं उसे नहीं जानता तो मैं भी तुम लोगों की ही तरह झूठा ठहरूँगा। मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ, और जो वह कहता है उसका पालन करता हूँ।तुम्हारा पूर्वज इब्राहीम मेरा दिन को देखने की आशा से आनन्द से भर गया था। उसने देखा और प्रसन्न हुआ।'"

फिर यहूदी नेताओं ने उससे कहा,“तू अभी पचास बरस का भी नहीं है और तूने इब्राहीम को देख लिया।”

इस वाक्य को समझना हमारे लिए कठिन है। यीशु अपने आप को परमेश्वर कह रहा था। जब मूसा जलती हुई झाड़ी के पास खड़ा था तो उसने परमेश्वर से उसका नाम पुछा, तो उसने कहा,"'मैं हूँ।"' हर एक यहूदी जानता था कि इसी नाम से सर्वशक्तिमान परमेश्वर को सम्बोधित किया जाता था और वह पवित्र था। यहूदी लोग इस घोषणा को सुनकर इत्यधित क्रोधित हुए कि वे उसे पत्थरवा करना चाहते थे। अपने आप को परमेश्वर कहना उसकी निंदा करना था और उसकी सज़ा मृत्यु थी। अपने आप को परमेश्वर कह कर निंदा तब होती है जब वह झूठ हो। यीशु सत्य कह रहे थे! ये यहूदी अपने आप को इब्राहिम कि संतान कहते थे, लेकिन उसका मतलब यह है कि उन्हें भी इब्राहिम कि तरह होना चाहिए था, और वह एक महान विश्वासी जन था। परमेश्वर ने उसे यह वायदा दिया था कि वह उसे एक महान राष्ट्र बनाएगा, और पचीस साल तक इब्राहिम जंगलों में भटता रहा और परमेश्वर के इस वायदे को पूरा होने का इंतज़ार करता रहा। उसने उस बातों  पर विश्वास किया जिसे उसने देखा ही नहीं था। और अब यीशु भीड़ के सामने खड़े होकर उन्हें कह  रहा था कि वे उन अनंतकाल कि बातों पर विश्वास करें जो उन्होंने अभी तक नहीं देखि हैं। उन्हें यह विश्वास करना था कि ये वचन परमेश्वर कि ओर से हैं और वे उन्हें जीवन देने वाले वचन थे जो उन्हें पाप से स्वतंत्र करते। उन्हें मसीहा के उद्देश्य को जानने के लिए उस पर भरोसा करना था। उन्हें यह विश्वास करना था कि परमेश्वर पिता ने ही उन चमत्कारों करने के लिए शक्ति प्रदान कि थी। विश्वास करने के लिए और कितने तरीके यीशु उन्हें देता, और कितनो को वे अस्वीकार करते इससे पहले उनके पास और अवसर नहीं रहते?

यहूदियों ने मसीहा को सुना था और एक बार फिर उसे अस्वीकार कर दिया। वे उसे उसी समय मारवा देना चाहते थे। यीशु का अपने प्राण को बलिदान करने का समय  अभी नहीं आया था, और उन लोगो के क्रोध के अनुसार नहीं होने वाला था। जब उसका पिता उससे कहेगा तब वह अपना बलिदान दे देगा। वह भीड़ में जा मिला और जब तक छुपा रहा जब तक सारी अव्यवस्था ख़त्म नहीं हो गई