कहानी १००: मिलापवाले तम्बू का पर्व: अंतिम दिन

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इस्राएल के देश का यह तनाव और सोच विचार से भरा जश्न का अंतिम दिन था। क्या वे इस बात को स्वीकारते कि यीशु के पास परमेश्वर के द्वारा दी गयी सामर्थ और अधिकार है, जैसा कि वह कहता था? क्या वे उसे मसीह के रूप में स्वीकार करेंगे? सभी कि दिमाग में इन बातों को लेकर चिंता थी जब वे वापस अपने घरों को लौट रहे थे। इस बीच, यीशु जैतून के पहाड़ी पर जाकर विश्राम करने लगा। यह उस पहाड़ी पर था जिस पर येरूशलेम टिका हुआ था।

अलख सवेरे वह फिर मन्दिर में गया। सभी लोग उसके पास आये। यीशु बैठकर उन्हें उपदेश देने लगा। उन लोगों कीकल्पना कीजिये जो यीशु को सुनने के लिए वहाँ जमा हुए। यीशु से उन वचनों को सुनना जो स्वयं परमेश्वर कह रहे थे। तभी यहूदी धर्मशास्त्रि और फ़रीसी लोग व्यभिचार के अपराध में एक स्त्री को वहाँ पकड़ लाये। और उसे लोगों के सामने खड़ा कर दिया। और यीशु से बोले,“हे गुरु, यह स्त्री व्यभिचार करते रंगे हाथों पकड़ी गयी है। मूसा की व्यवस्था हमें आज्ञा देता है कि ऐसी स्त्री को पत्थर मारने चाहियें। अब बता तेरा क्या कहना है?”

यीशु को जाँचने के लिये यह पूछ रहे थे ताकि उन्हें कोई ऐसा बहाना मिल जाये जिससे उसके विरुद्ध कोई अभियोग लगाया जा सके। वे जानते थे यीशु चुंगी लेने वाले और पापियों के साथ उठता बैठता है। यह स्त्री पापिन थी। अब यीशु क्या करेगा? क्या वह साधारण रूप से दया दिखाएगा या परमेश्वर की व्यवस्था का आदर करेगा? लेकिन ये लोग यह नहीं समझ सके कि परमेश्वर की व्यवस्था और यीशु की करुणा दोनों एक ही आत्मा के द्वारा हैं। वे उस पर दोष लगाना चाहते थे। कुछ सवाल हम भी पूछ सकते हैं: यदि इस स्त्री ने व्यभिचार किया था तो वह आदमी कहाँ था जिसके साथ उसने वह पाप किया? वो भी वहाँ क्यूँ नहीं था और उन्ही दोषों को सहता? और उस स्त्री को सबके सामने लाकर दोषी क्यूँ ठहराया गया?

एक बार फिर, उनके प्रवंचना काम नहीं आएंगे।

इस समय तक, यीशु उठ खड़ा हुआ। यीशु नीचे झुका और अपनी उँगली से धरती पर लिखने लगा। क्योंकि वे पूछते ही जा रहे थे।

यीशु सीधा तन कर खड़ा हो गया और उनसे बोला,“तुम में से जो पापी नहीं है वही सबसे पहले इस औरत को पत्थर मारे।” और वह फिर झुककर धरती पर लिखने लगा। भीड़ यह सब कुछ देख रही थी। वह स्त्री शायद दर और शर्म के कारण वहाँ खड़ी हुई थी। धार्मिक अगुवे भी गुस्से से यीशु को देखते रहे जब वह नीचे झुक कर कुछ लिख रहा था। एक एक कर के यहूदी अगुवे वहाँ से चले गए।

आपको क्या लगता है कि यीशु ने क्या लिखा होगा? बाइबिल हमें नहीं बताती, लेकिन इन धार्मिक अगुवों पर इसका गहरा असर हुआ और वे यीशु को फसाकर उस स्त्री को मृत्युदंड देना चाहते थे। क्या यीशु ने उनके ही पापों के नाम लिखें होंगे? उनकी अपनी ही कमियां उन्हें याद आने लगे थे? दोषी तेरे जाने का दर कहीं उन्हें तो नहीं सता रहा था? उस पल में जो कुछ भी हुआ, वह बहुत शक्तिशाली था।सबसे पहले बूढ़े लोग और फिर और भी एक-एक करके वहाँ से खिसकने लगे। सबके जाने यीशु खड़ा हुआ और उस स्त्री से बोला,“हे स्त्री, वे सब कहाँ गये? क्या तुम्हें किसी ने दोषी नहीं ठहराया?”

स्त्री बोली,“हे, महोदय! किसी ने नहीं।”

यीशु ने कहा,“'मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा। जाओ और अब फिर कभी पाप मत करना।'”

एक बार फिर यीशु उपदेश देने लगे। इस बार, वह मंदिर के भंडार में था। वहाँ तेरह संग्रह बक्से जो तुरही के आकार में थे, लोगों के दान प्राप्त करने के लिए रखे थे। ख़ज़ाने को, दोनों यहूदी पुरुषों और महिलाओं को इकट्ठा करने के लिए अनुमति दी गई थी। यीशु दोनों पुरुषों और महिलाओं के लिए उपदेश दे रहा था, क्यूंकि वहाँ प्रचार करने कि अनुमति थी।

भंडार उस कमरे के बगल के कमरे में रखा हुआ था जहां यहूदी अगुवे मिलते थे। वह यहूदियों के धर्म का सरकारी सलहकार था। यह बड़े बड़े धार्मिक यहूदी अगुवों के द्वारा चलाया जाने वाला समूह था जो यहूदी देश के सब निर्णय लेते थे। उन्होंने यीशु को हटा देने का फैसला और फिर भी वह उनके बीच खड़े होकर परमेश्वर का वचन सुना रहा था। जब आप इसे पड़ते हैं, उसके साहस के विषय में सोचिये जो उसने उनके सामने दिखाया।

यीशु ने कहा,

“'मैं जगत का प्रकाश हूँ। जो मेरे पीछे चलेगा कभी अँधेरे में नहीं रहेगा। बल्कि उसे उस प्रकाश की प्राप्ति होगी जो जीवन देता है।'”

यह कितनी ख़ूबसूरत बात है! यीशु ज्योति है! वह परमेश्वर कि ज्योति को दिखता है। जो कोई यीशु कि ज्योति में चलता है वह ना केवल उसकी ज्योति में होता है बल्कि उसे उसकी ज्योति दी जाएगी! वे इस जीवन कि ज्योति कि अपने अंदर चलेंगे। इसे सुनकर कितनों के ह्रदय में कार्य हुआ होगा। उनके अपने मसीहा इस अनमोल उपहार को दे रहे थे! लेकिन इस उल्लेखनीय, उज्जवल आशा को सुनने के लिए सब के कान नहीं लगे थे।

फरीसी उसके विरुद्ध में बहस करने लगे। यीशु अपने ही अधिकार को लेकर कैसे गवाही दे सकता था? यहूदी केवल एक व्यक्ति दुसरे के प्रति गवाही दे सकता था। पुरुष अपने ही गवाह नहीं बन सकते थे! लेकिन यीशु परमेश्वर था, और उसी ने नियम को दिया था! वह उन नियमों से बंधा हुआ नहीं था। इसलिए वह तुरंत उन्हें जवाब देकर उन्हें उस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए सफाई देता था। यीशु एक साधारण मनुष्य नहीं था। वह परमेष्वर का पुत्र र्थ और इसलिए वह व्यवस्था से ऊपर था जिसके आधीन में फरीसियों को रहना था।

उत्तर में यीशु ने उनसे कहा,“'यदि मैं अपनी साक्षी स्वयं अपनी तरफ से दे रहा हूँ तो भी मेरी साक्षी उचित है क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। किन्तु तुम लोग यह नहीं जानते कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। तुम लोग इंसानी सिद्धान्तों पर न्याय करते हो, मैं किसी का न्याय नहीं करता।'"

पहले यीशु ने इस बात को लेकर बहस की कि अपने स्वयं कि गवाही देने का अधिकार था क्यूँ वह यह पूर्ण रूप से समझता था कि उसका अस्तित्व महाकाव्य वास्तविकता कहाँ से है। कोई भी मनुष्य यीशु की महानता और भव्यता के विषय में नहीं बता सकता। उनके विचार बहुत ही छोटे थे। परन्तु यीशु परमेश्वर कि दृष्टी से देखता था जो युगानुयुग के लिए थी। फरीसी सृष्टिकर्ता परमेश्वर के विरुद्ध एक बहुत ही ज़बरदस्त अज्ञानता, भ्रम और अकल्पनीय हेकड़ी को प्रदर्शित कर रहे थे।

"'किन्तु यदि मैं न्याय करूँ भी तो मेरा न्याय उचित होगा। क्योंकि मैं अकेला नहीं हूँ बल्कि परम पिता,जिसने मुझे भेजा है वह और मैं मिलकर न्याय करते हैं। तुम्हारे विधान में लिखा है कि दो व्यक्तियों की साक्षी न्याय संगत है। मैं अपनी साक्षी स्वयं देता हूँ और परम पिता भी, जिसने मुझे भेजा है, मेरी ओर से साक्षी देता है।'”

यीशु को किसी और कि साक्षी कि ज़रुरत नहीं थी कि वे इस बात कि गवाही दें कि वह परमेश्वर का पुत्र है। परमेश्वर पिता ने स्वयं इसकी गवाही दे दी थी। किसी और ऊंचे अधिकारी के पास जाने कि आवश्यकता नहीं थी। इस शृष्टि का कर्ता और यीशु एक ही थे।

धार्मिक अगुवे फिर से उस सामर्थ और महिमा जो उनके समक्ष में थी, नहीं ले पाये। जो कुछ भी यीशु करते थे, वे परमेश्वर पिता के साथ खड़े होते थे जो स्वर्ग में विराजमान है और पूरे सामर्थ और बल के साथ राज कर रहा है। यीशु ने परमेश्वर कि इच्छा को हर पल और हर वचन में दर्शाया। यहूदी पीढ़ी को यह कितना विशाल तोहफा मिला जो सोच से बाहर है! लेकिन अगले ही प्रश्न से उन्होंने यह साबित किया कि वे कितने कठोर थे। उन्होंने उससे पुछा,

“तेरा पिता कहाँ है?”

यीशु ने उत्तर दिया,“'न तो तुम मुझे जानते हो, और न मेरे पिता को। यदि तुम मुझे जानते, तो मेरे पिता को भी जान लेते।'”

अच्छा होता कि फरीसी और अन्य धार्मिक अगुवे इस विश्वास में अपने कदम को उठाते जो उनके लिए ही था! वे जान जाते कि यीशु परमेश्वर पिता को उन के लिए दर्शा रहा था! पिता को जानने का मतलब था बेटे को जानना और बेटे को इंकार करने का मतलब था पिता को इंकार करना। फरीसियों ने काय अपनी गलती को माना? क्या वे परमेश्वर को अनुमति देते कि वह उन्हें बदल दे?

यीशु के इतने साहसी घोषणाओं के बाद भी जो उसने अपने दुश्मनो के सामने ही किये कि वो और परमेश्वर एक ही हैं, उसे कोई नहीं पकड़ पाया। उसका समय अभी नहीं आया था।